Sunday, December 28, 2014

हिन्दूत्व और विकास

जहा देश की जनता ने धर्म, जाति सम्प्रदाय पन्थ एवं अनेक समाजिक बन्धनो से अलग होते हुए विकास को मुद्दा बनाकर मोदी जी को देश की बागडोर सौपी ।


जहा देश की जनता ने मोदी जी को विकास के मुद्दे पर उनके सारे कि विपक्षियो को करारा जवाब ही नही अपितू

 धर्मनिर्पेक्ष की परिभाषा और ब्याख्यान पर सोचने को मजबूर कर दिया जो काविले तारीफ़ है।
अब तक आजादी के बाद देश मे शायद पहली बार ही ऐसा राजनितिक बद्लाव देखने को मिला होगा ।
जाहा देश एक तरफ़ कान्ग्रेस परिवार व क्षेत्रीय पार्टियो के मनमौजी राजनीतिक एवं समाजिक भ्रष्टता से उवने के बाद  देश की जनता ने मोदी जी को विकस पुरुष के रूप मे विश्व पटल पर ला दिया।

इस की वजह जो भी रहा हो जो सफ़लता बी.जे.पी. को उसके इतिहास मे अब तक नही मिली हो न उसने ऐसी उम्मीद ही की हो परतु वो सपना साकार हुआ है जो शायद उनके बडे राजनितिक विषलेशको और चिन्तको ने न देखी हो।

ऐसा नही है कि बी.जे.पी मे मोदी के स्तर का कोई और नेता नही हुआ या नही है , परन्तु जो
सबसे बडी  बात यह रहा है की मोदी ने किसी भी रैली या जनसभा मे केवल एक ही मुदा आगे रखा ओर एक ही सपना दिखाये वो विकास का ।

मोदी जी आज भी कही भी जाते है, तो एक ही बात की रट लगते है वो विकास का, वो हर क्षेत्र राज्य को विकास के मुदे पर लोगो को जोडने का काम करते है , भले ही आम जनता को यह नही पता विकास जो सपने वो जो दिखा रहे है, वो सच भी होगे या नही ।

कया जो सपने मोदी जी ने जनता को दिखाये वे उन सपने को साकार करेगे कि नही अब उसमे कही न कही सवाल खडे कर रहे है। पता नही क्यो देश जब-जब विकास के मार्ग पर अग्रसर होता दिखता है,तो उसकी विविधताये उसके मार्ग मे अवरोध उत्पन्न कर देती  है।

 आज एक तरफ़ धर्मान्तरण का मुद्दा जोर शोर से चलाया जा रहा है, क्या वह वास्तव मे विकास के मार्ग से भटकाने का प्रयास तो नहि कर रहे है? बी. जे. पी. का एक बडा तबका जो इसका पक्षधर है, क्या उसके लिये यही उचित समय है? क्या उनको जनता ने जनाधार इसलिये दिया है कि वे आदर्श ग्राम योजना,जनधन योजना, स्वक्ष भारत अभियान इत्यादि योजनाओ को दरकिनार करते हुये हिन्दु जागरण मन्च से घर वपसि कराये ।

जनसभाओ मे विकास कि बात करने वाले धर्मान्तरण मुद्दे की आहुती कर रहे है।

माननिय मोदी जी की कही न कही संसद के अलावा जनता के प्रति भी जबाबदेही बनति है । क्युकि जनता ने जिस आधार पर जनाधार दिया था वो मुद्दा विकास का था, भ्रस्टाचार मुक्त भारत का था, वो मुद्दा नौजवानो के रोजगार के लिये था, वो मुद्दा महिल सुरक्षा का था, वो मुद्दा सशक्त और सुद्रिढ भारत के लिये था न की सम्प्रदायिक तनाव के लिये था।

मोदी जी को उन सारे संगठनो और माननिय साथियो को अपने मनसा से अवस्य अवगत कराना चाहिये उन पर अन्कुश अवस्य लगाना चाहिये।

अपने अटल और मजबुत इरादो से जनता के दिलो मे जगह बनाना चाहिये, नहि तो समाज क वो हिस्सा जो इतने अर्से बाद भेदभाव भुलाकर केवल विकास के मुद्दे पर एक हुआ था उसमे विस्वास दिलते हुये उनके दिलो पर एक नया छाप छोडना होगा।

मोदी जी को वाजपेयी जी कि उन पंक्तियो पर जोर अवस्य देना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा॥



 मुकेश पाण्डेय
हिन्दूत्व और विकास

जहा देश की जनता ने धर्म, जाति सम्प्रदाय पन्थ एवं अनेक समाजिक बन्धनो से अलग होते हुए विकास को मुद्दा बनाकर मोदी जी को देश की बागडोर सौपी ।

जहा देश की जनता ने मोदी जी को विकास के मुद्दे पर उनके सारे कि विपक्षियो को करारा जवाब ही नही अपितू

 धर्मनिर्पेक्ष की परिभाषा और ब्याख्यान पर सोचने को मजबूर कर दिया जो काविले तारीफ़ है।
अब तक आजादी के बाद देश मे शायद पहली बार ही ऐसा राजनितिक बद्लाव देखने को मिला होगा ।
जाहा देश एक तरफ़ कान्ग्रेस परिवार व क्षेत्रीय पार्टियो के मनमौजी राजनीतिक एवं समाजिक भ्रष्टता से उवने के बाद
देश की जनता ने मोदी जी को विकस पुरुष के रूप मे विश्व पटल पर ला दिया।

इस की वजह जो भी रहा हो जो सफ़लता बी.जे.पी. को उसके इतिहास मे अब तक नही मिली हो न उसने ऐसी उम्मीद ही की हो परतु वो सपना साकार हुआ है जो शायद उनके बडे राजनितिक विषलेशको और चिन्तको ने न देखी हो।

ऐसा नही है कि बी.जे.पी मै मोदि के स्तर का कोई और नेता नही हुआ या नही है , परन्तु जो
सबसे बडी  बात यह रहा है की मोदि ने किसी भी रैली या जनसभा मे केवल एक ही मुदा आगे रखा ओर एक ही सपना दिखाये वो विकास का ।

मोदि जी आज भी कही भी जाते है, तो एक ही बात की रट लगते है वो विकास का, वो हर क्षेत्र राज्य को विकास के मुदे पर लोगो को जोडने का काम करते है , भले ही आम जनता को यह नही पता विकास जो सपने वो जो दिखा रहे है, वो सच भी होगे या नही ।

कय जो सपने मोदि जी ने जनता को दिखाये वे उन सपने को साकार करेगे कि नही अब उसमे कही न कही सवाल खडे कर रहे है।

पता नही क्यो देश जब-जब विकास के मार्ग पर अग्रसर होता दिखता है,तो उसकी विविधताये उसके मार्ग मे अवरोध उत्पन्न कर देती  है।

 आज एक तरफ़ धर्मान्तरण का मुद्दा जोर शोर से चलाया जा रहा है, क्या वह वास्तव मे विकास के मार्ग से भटकाने का प्रयास तो नहि कर रहे है?

 बी. जे. पी. का एक बडा तबका जो इसका पक्षधर है, क्या उसके लिये यही उचित समय है?
क्या उनको जनता ने जनाधार इस्लिये दिया है कि वे आदर्श ग्राम योजना,जनधन योजना,स्वक्ष भारत अभियान इत्यादि योजनाओ को दरकिनार करते हुये हिन्दु जागरण मन्च से घर वपसि कराये ।

जनसभाओ मे विकास कि बात करने वाले धर्मान्तरण मुद्दे की आहुती कर रहे है।

माननिय मोदी जी की कहि न कही सन्सद के अलवा जनता के प्रति भी जबाबदेही बनति है । क्युकि जनता ने जिस आधार पर जनाधार दिया था वो मुद्दा विकास का था, भ्रस्टाचार मुक्त भारत का था, वो मुद्दा नौजवानो के रोजगार के लिये था, वो मुद्दा महिल सुरक्षा का था, वो मुद्दा सशक्त और सुद्रिढ भारत के लिये था न की सम्प्रदायिक तनाव के लिये था।

मोदी जी को उन सारे संगठनो और माननिय साथियो को अपने मनसा से अवस्य अवगत कराना चाहिये उन पर अन्कुश अवस्य लगाना चाहिये।

अपने अटल और मजबुत इरादो से जनता के दिलो मे जगह बनाना चाहिये, नहि तो समाज क वो हिस्सा जो इतने अर्से बाद भेदभाव भुलाकर केवल विकास के मुद्दे पर एक हुआ था उसमे विस्वास दिलते हुये उनके दिलो पर एक नया छाप छोडना होगा।

मोदी जी को वाजपेयी जी कि उन पंक्तियो पर जोर अवस्य देना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा॥



Sunday, June 30, 2013

धर्मनिर्पेक्षता पर भारी , मोदी की लोकप्रियता

धर्मनिर्पेक्षता की गुहार लगाने वाले लोग जो दिन रात धर्मनिर्पेक्षता की रट लगाये रहते है, शायद उन्हे इसका आशय नही पता।


वास्तव मे कोई भी धर्मनिर्पेक्ष हो ही नही सकता,और जो राजनैतीक दल या राजनेता इसकी गुहार लगाते रह्ते है,वो मात्र समाजिक असन्तुलन कर किसी विशेष समुदाय के प्रति अपने को हितैषी साबित करना  चाहते है, न कि पुरे समाज और राष्ट्र को धर्मनिर्पेक्ष बनाना ।

हमारे संबिधान के प्रस्तावना मे भी इसका अच्छे ढंग से विवेचना किया गया है कि , यह गणराज्य धर्मनिर्पेक्ष होगा ,परन्तु कोइ भी व्यक्ति किसी भि धर्म को अपना सकता है ।
सारे धर्मो को निर्पेक्षता से जोडा गया है । ताकि कोइ भी राज्य किसी विशेष धर्म व समुदाय के साथ जातीय न कर सके, अगर ऐसा होता है, तो उस पर संबिधान हस्तक्षेप कर सकता है।


पुर्व राष्ट्रपति डा. राधाकृषणन ने भी अपनी पुस्तक ’ रिकवरी आफ़ फ़ेथ’ मे धर्मनिर्पेक्षता का व्याख्यान किया है, जिसमे उन्होने राज्य को धर्मनिर्पेक्ष होने पर अधिक जोर दिया है और इसके साथ इस बात पर भी जोर देते हुये स्पष्ट किया है कि,धर्म के प्रति आस्था को नकारा नही जा सकता ।

हाल के बदलते घट्ना क्रम ने इसे और भी हवा दे दिया है, जिसमे नरेन्द्र मोदी को भाजपा प्रधानमंत्री के उम्मीद्वार के रुप मे देखना चाहती है,जिसके फलस्वरूप विपक्षी पार्टीया तो दूर एनडीए  के अपने घटक दलो मे काफी नाराजगी और असंतोष उभर कर सामने आया।

कुछ धर्मनिर्पेक्षता के पैरवीकार नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमन्त्री ने अपना समर्थन तक वापस ले लिया,
और वो आजकल धर्मनिर्पेक्षता की नयी परिभाषा बनाने मे लगे हुये है, वही शिवशेना जो क्षेत्रवाद की राजनीती से ओतप्रोत है, वो भी मोदी के नाम से परहेज रखने मे नही कतरा रही है, जिसका उदय ही १९९३ के दंगे के बाद हूआ और आजतक उसके पास मुद्दे भी वही है मराठी बनाम उत्तर भारतीय ।

जबकि कांग्रेस अपने आप को सर्वधर्महिताय एवं सर्वसमुदाय हितैषी बताने मे नही चुकती , उसने अपने पत्ते अब तक नही खोली है। हालांकी उसके हर चुनाव मे मोदी को संप्रदायीक, मौत का सौदागर एवं मुस्लिम विरोधी सावित करना मुख्य चुनावी एजेंडा होता है।

अगर तर्क की बात करे तो चाहे वो १९८४ का सिख दंगा हो, १९९३ क मुम्बई बम धमाका हो या फिर गुजरात का २००२ गोधरा कांड ही क्यू न हो, इन सारे दुर्घटनाओ मे जो आहत हुआ, वो सिर्फ़ और सिर्फ़ भारतीयता थी, अनेकता मे एकता क व्हाश हुआ और भाईचारे की धज्जिया उड़ी   । न तो वो सिखों पर हमला था न तो हिन्दुओ पर, नही मुस्लिमो पर ।

इसमे कोइ दो राय नही की मोदी के प्रति मुस्लिम समुदाय मे अब तक आक्रोश है,और वे उनकी छवि को संप्रदायीक तौर पर देखते है, मगर इतनी सच्चाई भी अवस्य है कि, वहा की जनता उन सब हादसो को भुलकर एक नयी उम्मीद के साथ उनके सुप्रशासन एवं विकास की छवि को अधिक महत्व दे रही है।

अगर आपको याद हो तो  पिछले गत वर्षो मे दो विवाद काफी चर्चा मे रहा , जिसमे देवबन्द के कुलाधिपति और एक वरिष्ठ पत्रकार ने उनकी छवि को संप्रदायीक के बजाय विकाश पुरुश के रुप बताया, और साथ ही  साथ वहा कि जनता से यह अपील भी की थी, कि उनकि छवि को विकाश पुरुश के रुप मे देखा जाय ।

मै किसी भी धर्म, व्यक्ति की वकालत नही कर रहा हु, न ही गडे मुर्दे उखाडने का प्रयाश कर रहा हु, मै सिर्फ़ यह बताना चाह्ता हु कि, आज की पारिस्थिति मे आम नागरिक को न तो मोदी से परहेज है, न ही अखिलेश यादव और नीतीश कुमार से उम्मीद ।

आज के तारिख मे धर्मनिर्पेक्ष वही व्यक्ति, वही सरकार हो सकती है, जो सर्वांगिण विकास की बात करे नये रोजगार के अवसर की बात करे, और भ्रष्टाचार मुक्त शाषन प्रदान करे, जो किसी विशेष समुदाय को तवज्जो देने के बजाय पुरे समाज को विश्वास दिला सके कि, उसका राज्य, उसका राष्ट्र एवं हर नागरिक सुरक्षित है।



---मुकेश पाण्डेय


Thursday, January 10, 2013

सभ्य समाज मे नारी का वजूद...

६३ वर्ष पुर्व गण्तान्त्रिक और लोक्तान्त्रिक का दावा करने वाला भारत आज भी उन्ही हालतो से गुजर रहा है जहा वह इससे पुर्व था।
लालकिले व रास्ट्रपति भवन के प्राचीर से तिरन्गा लहरा देना और दो सच्चे झुठे वादे कर देने से कोइ देश प्रजातान्त्रिक होने का दावा
नही कर सकता नही, दुनिया का विशाल संविधान बना देने से उसके प्रजान्त्रिक होने का दावा सत्यार्थ हो जाता है।

आज़ादी के इतने वर्षो के उपरान्त भी अगर हम एक अच्छे समाज का निर्माण नही कर सकते, जहा पर आप को किसी भी तरह का वन्दिश या पाबन्दी नही है, तो फिर दुसरो पर अपनी नाकामियो का इल्ज़ाम कैसे लगा सकते है।

हम आम नागरिक हमेशा सरकार से ये उम्मीद रखते है कि, वो हमारे बारे मे सोचे वो हि एक स्वस्थ और अच्छे समाज का निर्माण करे ,और हम अपने  कर्तब्यो से पीछा छुडा ले और सारे के सारे इल्जाम सरकार पर थोप दे।
मेरे कहने का मकशद यह नही की सरकार जिम्मेद्दार नही है, या उसकी जिम्मेदारि नही बनती या हम सब निसक्रिय हो गये है।

जो सबसे बडा प्रश्न हमारे जेहन मे है वो यह है कि, क्या कुछ लोगो की वजह से पुरा समाज व देश अपने आप को कलन्कित महशुस करने लगा है। अभी फिल्हाल मे जो घट्ना घटित हुयी , उससे पुरा देश अपने आप मे शर्मशार हो गया। जहा हम कुछ रोज पहले बैठकर नयी उप्लब्धियो के बखान मे लगे थे यह कहकर अच्छा लगता था कि अब वो जमाना नही रहा जहा बेटे और बेटियो मे फ़र्क हो । गावो मे भी आम लोग कहते थे कि मेरी बेटी ही मेरे बुडापे की लाठी है,मेरी बेटी वो सब कर सकती जो एक लडके को करना चाहिये।

इसमे कोइ दो राय नही कि इस तरह के बद्लाव मे सरकार कि भुमिका न रही हो,सरकार ने भी विभिन्न तरह की योजनाये निकाली यहा तक महिला रिजर्वेशन जैसे बिल भी लाने के लिये प्रयास किये गये। इससे बडी उप्लव्धि क्या होगी जिसमे पिछ्ले गत वर्षो मे देश के उच्चतम पदो पर महिलायो का दबददा रहा हो।


इतने सारे बद्लावो के बाद इतनी बडी घटना घटने का मतलब तो सिर्फ़ यही निकलता है कि चाहे कुछ भी हो , हम अपनी मनसिकता नहि बदल सकते । हम अभी भी साम होने का इन्तजार करेंगे और सुन्सान  जगह पर किसी न किसी अबला को अपने हबश का शिकार बनायेंगे।

अगर हम एक अच्छे और स्वश्थ समाज का निर्माण करना  चाहते है तो, अपने अलावा उन लोगो की मान्सिकत भी बदलनी होगी जो नारी समाज को अपने से अलग मान्ते है,उन्हे ये भी सिख देनी होगी नारी  ऐसी कोई वस्तु नहि जिसका उपयोग हम अपने केवल निजी श्वार्थ के लिये करे।

उन्हे यह भी बताना होगा की वो हमसे अलग नहई है नही वो कमजोर और लाचार है, वो हमसे आपसे बेहतर है और उनके बिना कोई कार्य पुरा नही हो सकता। वो हमारी मां भी है और बहन भी।

 मुकेश




Wednesday, September 21, 2011

अन्‍ना की हुंकार से लोकतंत्र हुआ मजबूत



"मैं अन्‍ना हूं, तुम अन्‍ना हो अब ये सारा देश अन्‍ना हो चुका है, आखिरकार ये अन्‍ना कौन है ? "

74 वर्ष का एक अवकाश प्राप्त सैनिक या 74 वर्ष का समाजसेवी या विकासशील भारत का एक ऐसा सपूत जिसने लोगों में एक नयी प्रेरणा, एक नई ऊर्जा प्रदान करने का बीड़ा उठाने वाला ऐसा सिपाही जो रहता सबके सामने, परन्तु दिखता नहीं है । 


  जिस जनआन्दोलन का नाम भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहिम बताया जा रहा है, जिसका नाम लोकपाल कानून बनाने के लिए सार्थक प्रयास बताया जा रहा है, उसमें मुझे कहीं भी किसी भी तरह से यह बात समझ में नहीं आ रही की, क्या भ्रष्टाचार 15 दिन के जनआन्दोलन से मिटाया या समाप्त किया जा सकता है? या क्या रामलीला मैदान से आह्वान कर पूरे भारत को जगाया जा सकता है ? हमें ही नहीं बल्कि आपको भी शायद ऐसा न लगे ? क्योंकि यह आन्दोलन ऐसा नहीं है । न ही इसका कोई ऐसा आधार है, जो भ्रष्टाचार को लोकपाल के तहत देश से मिटाया जा सके । मैं जानना चाहूंगा आपसे और उन तमाम देशवासियों से जो अपना योगदान इस आन्दोलन में क्या पाने के लिए कर रहे हैं । आप शायद मेरे इन तमाम प्रश्नों से यह सोच रहे होंगे कि मैं आशावादी नहीं हूं, या मुझको इस आन्दोलन के नतीजे और प्रभाव का अनुमान नहीं  है, तो यह गलत है, मैं सिर्फ यह जानना चाहता हूं कि क्या आप सभी इस आन्दोलन से सन्तुष्ट हैं या नहीं ? अगर हैं तो क्युं और नहीं तो क्यूं ?

यह आन्दोलन एक व्यक्‍ति विशेष का नहीं है, एक समिति तक ही नहीं सीमित है, परन्तु यह इतना व्यापक और हजारों ऐसे नये मुद्दों को जन्म देने वाला है, जिसमें किसी व्यक्‍ति विशेष का योगदान महत्वपूर्ण होते हुए भी नहीं है । अगर इसका महत्व है तो इसलिए क्योंकि यह जनता को जागरूक करने का एक प्रयास अवश्य किया गया है ।
एक बार सबको दूसरे की गलतियों को देखने का आभास अवश्य कराया है ? चाहे वह मौजूदा सरकार की हो या पुलिस प्रशासन या किसी भी स्तर का क्यूं न हो !हम जहां ये नारे लगा रहे हैं कि “अब तो जनता जाग गई है" उसको  हम केवल कहने में विश्‍वास रख रहे हैं !

  क्या वास्तव में जनता जाग गई है तो रात नहीं आयेगी ? या हमेशा के लिए जाग गई है ! क्या आज जिन नेताओं को मंचों से अभद्र और गवार बताया जा रहा है, वो वास्तव में उसे कल तक याद रख पायेंगे या नहीं ?
   भाइयों हमारा इतिहास रहा है , कि हम रोज जागते और रोज सोते हैं । इसलिए यह आन्दोलन और मुद्दे जन्म लेते हैं ।

            आज हम जिस आन्दोलन के तहत किसी विशेष तंत्र को कानून बनाने की मांग कर रहे हैं, वह कितना प्रभावशाली या भ्रष्टाचार निरोधक होगा यह तो समय ही बतायेगा, परन्तु एक बात तो अवश्य निकल कर सामने आयी है और वह है, जनता की अदालत की चौखट पर कोई भी सरकार, कोई भी नेता, कोई भी पार्टी बड़ी नहीं है, न ही उसकी मनमानी चलेगी ।

हमलोग जो आम आदमी है, उसकी आवाज को बुलंद करने का एक रास्ता मिल गया है, जिससे कोई भी सरकार कोई भी जनप्रतिनिधि एक बार गलत काम करने से पहले अवश्य सोचेगा । दूसरी जो सबसे बड़ी उपलब्धि इस जनआन्दोलन की है वो है इसमें सरकार में शामिल लोगों तथा जनप्रतिनिधियों को समझने और परखने का मौका  ।

इस जनआन्दोलन से एक बार लोकतंत्र को मजबूती अवश्य मिली है, जिसमें यह कहा गया है, कि जनता सर्वोपरि है, और उसके अहित की बातें करने वालों को बख्शा नहीं जा सकता ।
भाइयों आजादी मिल जाना ही महत्वपूर्ण नहीं होता, महत्वपूर्ण यह होता है कि, उस आजादी का उपभोग उस देश का हर एक नागरिक कर रहा है कि नहीं -

  संविधान में नये नियम कानून बना देने से ही किसी समस्या का समाधान नहीं होता, बल्कि जरूरी यह होता है कि वह कितना प्रभावशाली है ?अगर हम उदाहरण के तौर पर देखें तो बहुत सारे कानून हैं, जो भ्रष्टाचार को मुक्‍त करने के लिए सक्षम हैं, परन्तु होता क्या है, न हम भ्रष्टाचार मिटने देना चाहते हैं और न ही वैसे लोगों का समर्थन ही करते हैं ।

परन्तु सौभाग्यवश आजादी के बाद पहली बार जनता के जागरूकता की वजह से इतना बड़ा जनआन्दोलन सार्थक रूप से सफल रहा । हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें अन्‍ना जैसे व्यक्‍ति के अत्यंत प्रभावशाली नेतृत्व की वजह से एक नयी सुबह को देखने और भाग लेने का मौका मिला ।

120 करोड़ आबादी वाले देश में लोकपाल का अर्थ और प्रभाव न जानने के बावजूद भी जनता ने बढ़चढ़कर जो दिलचस्पी ली, वो सिर्फ यही संकेत देता है कि- अब हम जाग चुके हैं । हमी गांधी, भगत सिंह और सुभाष के सपूत हैं । अब यहां कोई जयचंद या धृतराष्ट्र नहीं राज कर सकता न ही उसकी मनमानी चलेगी ।

इतनी जागरूकता और युवाओं के समर्थन और प्रदर्शन के बाद भी अगर कुछ राजनेता नजर अंदाज और संसद की गरिमा की बात करने वाले संसद में संसद की मर्यादा का हनन कर रहे हैं, उन्हें अवश्य ही यह सोच लेना चाहिए कि अब सारा देश जो अन्‍ना या गांधी अपने को मान लिया है वो उन्हें बख्शने वाली नहीं है । क्योंकिओ अन्‍ना और गांधी कोई व्यक्‍ति नहीं एक सोच है, जिससे पूरा भारत का जनसैलाब एक नये परिवर्तन की ओर अपने आप को अग्रसर देख रहा है-

क्योंकि मैं वो अन्‍ना हूं, जो एक नये युग का निर्माण करने में एक नये भविष्य को जन्म देने वाला है ।

जय हिन्द

मुकेश पाण्डेय          

Saturday, April 23, 2011

देश आजाद जनता गुलाम

कहने को लोकतंत्र परन्तु वास्तव में क्या हम इसके नियमों का पालन कर रहे हैं, या हमने जिसे चुना है, वो इसको साकार कर रहे हैं, या नहीं । अगर नहीं तो कौन है? इसका जिम्मेदार जनता या सरकार ।

कभी भी टूट सकता है, जनता के सब्र का बाँध । क्योंकि जनता अब काफी जागरूक हो चुकी हैं, क्योंकि आजादी के बाद अब तक की जितनी सरकारें हुईं उन्होंने देश का भला कम और अपना भला ज्यादा किया है ।
आज जो सबसे बड़ा प्रश्न है, वो यह है, कि क्या हम  1950  के बाद से पूर्णरूप से आजाद हुए हैं, या नहीं । अगर हैं, तो इतना वबंडर और सरकारों या राजनेताओं पर दोषारोपण क्यूं? और इन पर इतने इल्ज़ामात क्यूं? आखिरकार ये सरकार चलाने वाले तंत्र आखिर हम आपमें से ही तो हैं । इन्हें हमने ही तो ऐसा करने का मौका दिया है । तो फिर पछतावा क्यूं? परन्तु अगर हम, फ्लैशबैक में जायें और अंग्रेजी शासन व्यवस्था की तुलना अबतक की सरकारों से करें, तो कुछ मूल बिंदुओं पर हम इनमें शायद अंतर स्पष्ट न कर सकें । वो मूल बिन्दु है, भ्रष्टाचार, कालेधन की कमाई, जनता का शोषण, नस्लभेद, क्षेत्रवाद, क्योंकि ये सारी की सारी समस्यायें तब भी थी और आज भी है ।
हाँ फर्क इतना है, कि तब का भारत न तो एक देश था, न ही एक गणराज्य बल्कि तब टुकड़ों में विभाजित था, और आपसी मतभेद, सत्तालौलुप शोषण आदि सामाजिक बुराईयों से भरा पड़ा था । जिसके परिणामस्वरूप बाहरी आक्रमणकारियों ने इसे अपनी कमाई का ज़रिया बनाकर और यहां के लोगों का शोषण किया है, परन्तु स्थिति आज भी वैसी ही है । बहुत कुछ नहीं बदला है, हाँ बदला है, तो लोगों का रहन-सहन सोचने की क्षमता ।
जब देश गुलाम था तो अंग्रेजों के खिलाफ देश को एकजुट करने का बीड़ा जब गाँधी जैसे लोगों ने उठाया तो पूरा देश एक मंच पर आ गया जिससे अंग्रेजों जैसे बुद्धिमान और ताकतवर लोगों को भी हार मानना पड़ा । अगर मौजूदा स्थिति की बात करें तो आज भी देश कहने को तो आजाद है, परन्तु इसकी सत्ता जिन लोगों के हाथों में है, वो यह भूल गये हैं, कि उनका इस देश के प्रति क्या कर्तव्य होना चाहिये । अगर हम कुछ मुद्दों और शासन प्रणाली या सरकार के अधिकारों की बात करें तो लोकतंत्र एकमात्र जनता को गुमराह करने वाला शब्द है । और कुछ नहीं क्योंकि यहां की सरकार के पास जितने भी अधिकार हैं, वो उसको किसी भी प्रकार से उसको मनमानी करने से नहीं रोक सकता । और जनता लाचार ही लाचार तब तक बनी रहेगी, जब तक की अगली सरकार चुनने का मौका उसे न मिले ।
आज देश जागरूक हो रहा है, और जनता को भी एक मंच पर लाने वाले लोग मिलने लगे हैं, जिनके कार्यों से आप या हम किसी भी प्रकार का संदेह नहीं कर सकते ।  आज देश दो गुटों में बंट चुका है । एक है, सरकार पक्ष (या सत्तापक्ष चाहे वो किसी भी राजनीतिक दल से हो) दूसरा पक्ष समाजसेवी या सीधे शब्दों में कहें तो अन्‍ना हजारे जैसे लोग ।
        मौजूदा सरकार कहने के लिए भ्रष्टाचार कालेधन और अन्य कई मुद्दों के खिलाफ मनमोहन सिंह जी के नेतृत्व में लड़ रहा है । वहीं दूसरी तरफ अन्‍ना हजारे जैसे लोगों के सामने आने से जनता को एक नई रोशनी भी मिल गयी है । अब जंग की शुरूआत भी एक मुद्दे से दोनों गुटों के बीच शुरू हो गई जो है- लोकपाल विधेयक
अगर हम इसे ‘देश आजाद जनता गुलाम’ के दृष्टिकोण से सोचें तो यह लोकपाल विधेयक एकमात्र बहाना है, जिसमें जनता के घेरे में सरकार है । बात न तो एक कमेटी के निर्माण एवं अधिकार तक ही सीमित है, बल्कि आम जनता इसको अपने मूलभूत अधिकारों से जोड़ रही है । और मैं कहता हूं, क्यूं नहीं जोड़े क्योंकि यह तो एकमात्र सरकारों की मनमानी के खिलाफ शुरूआत है । आज पहली बार आजादी के बाद ऐसा देखने व सुनने को मिला होगा, जिसमें जनता ने सारी राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ जन‍आंदोलन किया हो । सरकार की बात करें तो मनमोहन सिंह जी देश के प्रति वफादार कम और पार्टी के प्रति ज्यादा ही वफादार हैं और हों भी क्यूं नहीं, क्योंकि इनकी भी पृष्ठभूमि पार्टी के वफादारी से ही तो है ।
जब अन्‍ना हजारे जैसे लोग गाँधी जी के मार्ग का अनुसरण करते हुए जिस प्रकार सरकार को अपने आगे झुका दिया हो या बेबश कर दिया हो तो इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है । जहां पर देश में विभिन्‍न भागों में रोज-रोज न जाने कितने आंदोलन हो रहे हैं, परन्तु जो तरीका अन्‍ना हजारे जी का है, वो काफी सराहनीय है क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो बच्चे से लेकर बूढ़े तक मजदूर से लेकर फिल्म स्टार तक, नौकर से लेकर अफसर तक इनके मंच पर नहीं आते । एक बार फिर अन्‍ना हजारे जी के इस आंदोलन ने यहां के लोगों को एकजुट होकर अपने हक की लड़ाई लड़ने का तरीका जो सिखला दिया है ।

और एक बार फिर से देश के लोग एकजुट होकर अपनी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो चुके हैं । लोकपाल विधेयक तो एकमात्र बहाना था, जिसमें जनता के समक्ष सरकार को झुकना पड़ा- ‘क्योंकि अभी तो ये अंगड़ाई है, आगे बहुत लड़ाई है ।’ और मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि अब जनता आजाद होना चाहती है । और इसे रोकना आसान नहीं होगा - क्योंकि पूरे आवाम की एक ही आवाज है ।
                 दररे-दररे से निकला बस यही आवाज है,
                 आगे अन्‍ना तुम चलो, हम तुम्हारे साथ हैं ।  


                                 जय हिन्द......

Wednesday, September 22, 2010

किसका वजूद कितना पक्‍का राममंदिर या बाबरी मस्जिद का?

एक बार फिर से हमारा देश भारत  इतने विकास और उत्थान के बावजूद भी भावनात्मक विवादों की लड़ाइयों के आगे अपने आप को उबार नहीं सकेगा ?

क्योंकि यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसमें कुछ भी टिप्पणी करना आसान नहीं होगा । हम आज जिस फैसले का इंतजार कर रहे हैं, वो वास्तव में क्या दोनों के वजूद को साबित करने के लिए पुख्ता है? अगर नहीं तो ऐसे मामले न्यायालयों में या संगठनों के सहयोग या सलाह से नहीं सुलझाए जा सकते?

सबसे बड़ा सवाल इस मुद्दे का यह है कि अयोध्या का नाम अगर आज भी अयोध्या है, तो वह एक इत्तफ़ाक नहीं हो सकता । अगर वास्तव में बाबर ने वहां मंदिर न तोड़कर वहां मस्जिद का नये रूप से निर्माण करवाया तो उस पर विवाद कैसा? अगर उस मस्जिद पर विवाद है? तो और मस्जिदों और मंदिरों पर क्यूं नहीं?

आज सब लोग जो चाहें हिन्दू सम्प्रदाय से जुड़े हों या मुस्लिम समुदाय से, इन सब चीजों को मुद्दा बनाना महज एक समुदाय का दूसरे समुदाय के प्रति घृणा पैदा करना है, न कि किसी का हित सोचना क्योंकि न तो हिन्दू समुदाय के हितकारी उसे मंदिर ही बनने देना चाहते न ही मुस्लिम समुदाय के वादी प्रतिवादी उसे मस्जिद ही रहने देना चाहते हैं । सबसे बड़ा प्रश्न यह भी है, कि हम आज भी इतिहास को कुरेदने की कोशिशों में लगे हुए हैं, जिससे भारतीय हमेशा आहत हुए हैं ।

हमारे ही कुछ लोग इस मुद्दे को हिन्दू और मुसलमानों के वजूद की लड़ाई से भी जोड़ने का प्रयास करते हैं, क्योंकि ये वो भली-भाँति जानते हैं, कि अगर हम इसे संप्रदाय से जोड़ते हैं तो हमारा लाभ अवश्य निकल आयेगा ।

बात वजूद की निकली है, तो किसका वजूद कितना पक्‍का है आप स्वयं इसका आंकलन कर सकते हैं? क्योंकि भारत जब मुगलों के द्वारा आहत हुआ तो न जाने कितने मंदिर टूटे होंगे, कितनी मस्जिदें बनी होंगी, पर उनमें से केवल अयोध्या में ही किसी मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद क्यूं है? अगर भारत का इतिहास और इतिहासकार इस बात की पुष्टि करते हैं, कि पहले मुगल भारत पर आक्रमण करने आये । और न जाने कितनी बार यहां के लोगों पर अत्याचार किया और इसे बार-बार लूटा । उन सारे मुगलों का एक ही मकसद था लूटना और यहां से धन चुराकर अपने प्रदेश वापस चले जाना । परन्तु इतिहास के पन्‍नों में बाबर एक ऐसा हमलावरी था जिसने अपना साम्राज्य यहां स्थापित किया । जिससे एक बात तो स्पष्ट हो ही चुकी कि वजूद पुराना बाबर का है, या भारत का?

उस भारत का जहां की सभ्यता दुनिया के अन्य देशों से काफी विकसित थी । उस भारत का जहां न कोई सम्प्रदाय हुआ करता था, न ही आपसी कोई टकराव । मुगलों से पहले का भारत और मुगलों के बाद का भारत काफी बदल चुका था । क्योंकि उससे पहले न कोई धर्म परिवर्तन ही हुआ था ना ही मस्जिदें तोड़कर मंदिर ही बने थे । हां ऐसा अवश्य होता था कि राम और रहीम सबके दिलों में होते थे न कोई राम और रहीम को अलग समझा, न ही रहीम या राम के नाम पर ईर्ष्या की ।

हम सब जानते हैं, पूरी दुनिया जानती है, कि अयोध्या राम की जन्म भूमि थी, और है । परन्तु इस तथ्य का न ही कोई सबूत है, न ही दिया जा सकता है? इस बात से मुस्लिम समुदाय जो इस मुद्दे में प्रतिवादी और वादी के रूप मे न्यायालयों में गुहार लगा रहे हैं, वह भी इस बात से इनकर नहीं करते कि अयोध्या ही राम की जन्मभूमि है, और आज की तारीख में अयोध्या ही दुनिया का एक मात्र ऐसा नगर है, जहां हर घर में राम-जानकी का मंदिर है ।

तो एक बात और स्पष्ट हो ही जाती है कि अयोध्या में मंदिर था या नहीं? हाँ विवाद यह है, जिसमें हिन्दू समुदाय बाबरी मस्जिद को ही राम मंदिर मानते हैं और उनके अनुसार प्राचीन राम मंदिर को तोड़कर बाबर ने बाबरी मस्जिद का प्रारूप दिया था, जबकि मुस्लिम समुदाय इस बात को मानने से बिल्कुल इन्कार करते हैं । तथा वो इस मस्जिद के बारे में यह बताते हैं, कि बाबरी मस्जिद का निर्माण बाबर ने नये रूप से खाली जगह में कराया था । जहां पर कोई भी मंदिर नहीं था । ना ही कोई मंदिर तोड़कर उसे मस्जिद बनाया गया ।



अगर विवाद के इतिहास पर नजर डालें तो इसको 61 साल लगभग हो चुके हैं । विवाद की शुरूआत 22-23 दिसम्बर 1949 से हुई थी, जिसके तहत मस्जिद के अंदर चोरी छिपे मूर्तियां रखने से कथित तौर पर हुआ । और अब यह मुद्दा काफी तूल पकड़ चुका है, जिसका निर्णय उच्च न्यायालय के हाथ में है । अगर देखा जाय तो दर्जनों वाद बिंदुओं पर फैसला आना है, लेकिन मुख्य मुद्दा ये है, कि वहां पहले राम मंदिर था या बाबर ने मस्जिद रिक्‍त जगह में बनवायी थी ।

बाबरी मस्जिद और विवादित घटना क्रम ः

1 * मस्जिद के अन्दर मूर्तियां रखने का मुकदमा पुलिस ने अपनी तरफ से करवाया जिसकी वजह से 29 दिसम्बर 1949 में मस्जिद के कुर्की के बाद ताला लगा दिया गया और तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष प्रिय दत्त राम के देख-रेख में मूर्तियों की पूजा की जिम्मेदारी दे दी गयी ।

2 * 16जनवरी 1950 में हिंदू महासभा के कार्यकारी गोपाल सिंह विशारद ने मूर्तियों की पूजा के लिए सिविल कोर्ट में अर्जी दायर की जिसके फलस्वरूप सिविल कोर्ट ने पूजा आदि के लिए रिसीवर व्यवस्था बहाल रखी ।

3 * 1949 में निर्मोही अखाड़ा ने अदालत में तीसरा मुकदमा दर्ज किया जिसमें कोर्ट से यह अपील थी कि उस स्थान पर हमेशा से राम जन्म स्थान मंदिर था, और वह निर्मोही अखाड़ा की संपत्ति है ।

4 * 1961 में सुन्‍नी वर्क्फ़  बोर्ड और कुछ स्थानीय मुसलमानों ने चौथा मुकदमा दायर किया जिसमें यह जिक्र था कि बाबर ने 1528 में यह मस्जिद बनवायी जो 1949, 22/23 दिसम्बर तक यहां नमाज अदा किया गया है ।

5 * मुस्लिम पक्ष का तर्क यह था कि निर्मोही अखाड़ा ने 1887 के अपने मुकदमे में केवल राम चबूतरे का दावा किया था न कि मस्जिद पर जिससे मुस्लिम पक्ष राम चबूतरे पर हिंदुओं के कब्जे और दावे को स्वीकार करता है ।

6 * और मुस्लिम पक्ष यह भी मानता है कि अयोध्या राम की जन्मभूमि भी है । परन्तु बाबरी मस्जिद खाली जगह पर बनायी गयी थी न की तोड़कर ।

7 * लगभग 40 सालों तक यह विवाद लखनऊ तक ही था, परन्तु 1984 में विश्‍व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोग से राम जन्मभूमि मुक्‍ति यज्ञ समिति ने इसे राष्ट्रीय मंच पर एक अभियान की तरह ला खड़ा किया ।

8 * 1986 में स्थानीय वकील उमेश चन्द्र पाण्डेय की दरख्वास्त पर जिला जज फैजाबाद के.एम. पाण्डेय ने विवादित परिसर खोलने को एकतरफा आदेश दे दिया, जिसकी तीखी प्रतिक्रिया मुस्लिम समुदाय के तरफ से हुई ।

9 * फरवरी 1986 में बावरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन हुआ और मुस्लिम समुदाय ने संघर्ष शुरू कर दिया ।

10 * 1989 में राजीव गाँधी ने चुनावी रैली को संबोधित किया जिसमें उन्होंने वहां की जनता को फिर से रामराज्य के सपने दिखाये । उसी समय विश्‍व हिन्दू परिषद ने वहां मंदिर का शिलान्यास भी कराया ।

11 * 90 के दशक में यह मुद्दा राजनीतिक मोड़ ले चुका था जिसमें राजीव गाँधी ने तथा अन्य पार्टियां जैसे भारतीय जनता पार्टी ने भी इसे राजनीतिक हवा देने की कोशिश की ।

12 * 1990 में कुछ राम भक्‍तों ने मस्जिद पर धावा भी बोला जिससे मस्जिद कुछ आहत भी हुआ ।

13 * 6 दिसंबर 1992 में देशव्यापी हिंन्दुओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया तथा मस्जिद के गुबंद को ध्वस्त कर दिया, जिसके फलस्वरूप जगह-जगह पर दंगे हुए, जिसमें काफी लोग मारे भी गये ।

14 * 2002 में एक बार फिर से देशव्यापी कार सेवकों ने अयोध्या चलो आंदोलन के तहत भाग लिया । परन्तु साधन व्यवस्था और सरकार के प्रयास से अयोध्या में कोई विवाद नहीं हुआ लेकिन गुजरात की तरफ लौटने वाले कार सेवकों को मुस्लिम समुदाय के हमले का शिकार होना पड़ा ।



इन सारी घटनाओं से यही निष्कर्ष निकलता है, कि यह मुद्दा न तो ६१ साल पुराना है, न ही किसी समुदाय के पक्ष का न ही विपक्ष का और ना ही किसी का वजूद ही पक्‍का होना है । हां एक बात तो अवश्य तय है, कि निर्णय किसी के भी पक्ष में क्यों न जाये, इसे न तो वहां मस्जिद बनना है, न ही मंदिर ।

क्योंकि अगर फैसला मस्जिद के पक्ष में जाता है, तो हिन्दू समुदाय उस फैसले को स्वीकार नहीं करेगा, और अगर फैसला हिंदू समुदाय के पक्ष में जाता है, तो मुस्लिम समुदाय उसे नहीं स्वीकार करेगा । क्योंकि ये ऐसे मुद्दे हैं जिसका फैसला वहां के लोग करेंगे, इस देश की जनता करेगी, और जनता सिर्फ शांति चाहती है । न तो वह दंगा चाहती है, न ही एक समुदाय का दूसरे समुदाय से घृणा ही जानती है । और हम तो उस देश के रहने वाले हैं, जहां पर हमारे लिए प्रेम ही सबकुछ है? हम उस मंदिर और मस्जिद के लिए क्यों लड़ें, जो हमारे अपनों के ही कब्र के ऊपर बनी हो? हम ऐसे उस राम और रहीम को उन मंदिर मस्जिदों से मुक्‍त कर देना चाहते हैं, जो कि विवादित ढांचों में बसते हैं ।

हम उस राम, रहीम को अपने हर भाईयों के हृदय में देखना चाहते हैं, जहां एक ही हृदय में मंहिर भी हो, मस्जिद भी, गिरजा घर और गुरूद्वारा भी-

क्योंकि मंदिर और मस्जिद का वजूद हमारे और आपसे है । हम रहेंगे तो मंदिर में भी नमाज अदा कर लेंगे, हम रहेंगे तो मस्जिद में भी दीप जला लेंगे और हमारे राम रहीम भी तो यही कहते हैं-

“मोको कहाँ ढूंढ़े है बंदे, मैं तो  तेरे  पास में.........”

 - मुकेश पाण्डेय