Friday, November 27, 2009

देश का दुर्भाग्य (26/11)




शायद किसी ने यह उम्मीद न किया हो कि एक तरफ हमारा देश प्रगति कर रहा है, नई ऊँचाईयों को छू रहा हैं । वही दूसरी तरफ एक निहायत ही कमजोर एवं लाचार होता जा रहा है, और हम इसके रखवाले, दिन व दिन अपंग होते जा रहे है । अगर ऐसा नही होता तो हर साल, हर महीने हम ऐसी घटनाओं के शिकार नहीं होते आज २६/११ के वर्षगांठ पर पूरा देश भावमीनी श्रद्धांजली दे रहा है । तो कोई उन शहीदों को पुष्पमाल्यार्पण कर रहा है । मैं पूछता हूँ कि क्या यह भावभीनी श्रद्धांजली, और उनकी याद में २ मिनट का मौन काफी है । उनके लिये या इस देश के लिए जिसका हदय बार-बार विद्रोहियों के द्वारा ब्यथित हो रहा हो । यह देश का दुर्भाग्य नही तो क्या है, यहाँ के रहने वालों के लिए शर्म की बात नहीं तो क्या है? यह एक ऐसा कलंक है जो मिटाये नही मिटने वाला है ।

कुछ लोगों को श्रद्धांजली फिल्म बनाने से है, वो सोचते हैं कि हम फिल्मों के माध्यम से, रेडियों के माध्यम से यहाँ के लोगों को बदलेंगे, उनके सोच को बदलेंगे, लेकिन ऐसा होना, एक ऐसे स्वप्न की तरह है, जो शायद ही पूरा हो सके । क्योंकि बदलती तो वो चीजे हैं, जिसमें चेतना हो परन्तु दुर्भाग्यवश सारे चेत होते भी अचेत है । हम इसे ऐसे याद कर रहे, ऐसे प्रस्तुत कर रहे हैं, जैसे बहुत ही गर्व की बात हो । वो हमें बार-बार कभी २६/११ का तो कभी १९९३ बम-ब्लास्ट, तो कभी काशी संकटमोचन के रूप में चुनौती दे जाते है, और हम उसे राजनीतिक फायदे मे तब्दील करते जा रहे है । इसे हम क्या कहेंगे ।
कहावत है, कि अपने घर में कुत्ता भी शेर होता है, लेकिन हम अपने को कहते शेर है, और हालत कुत्ते से बदत्तर है । कोई भी घटना होती है, चाहे वह रेल दुघर्टना हो, बस दुर्घटना हो, या बहुत बड़ी शाजिश के तहत देश पर हमला ही क्यों न हो, हम उसे दूसरे देश के द्वारा साजिश का नाम दे, अपना पिछा छुड़ा लेते है । हम किसी व्यक्‍ति या देश के खिलाफ पुख्ता सबूत होने के बावजूद कार्यवाही क्यों नहीं करते । क्यों दूसरे देशों के भरोसे रह जाते हैं । शायद इसलिये की हमारे पास धन नहीं है, शायद इसलिए की हमारे पास सैन्य बल का अभाव, और शायद इसलिए कि हमारे पास तकनीकी की कमी है । .... नहीं है, तो है, सिर्फ और सिर्फ सत्ता लौलुपता की और आत्मविश्‍वास की - अगर ऐसा नहीं होता तो, संसद भवन हमले के बाद यह २६/११ नहीं होता, और कदापि नही होता- इन सारी घटनाओ से हम सिर्फ अपने-आप को निकम्मे, कमजोर और लालची, बेईमान, मतलबी, साबित कर सकते है । हमारे लिए ऐसी घटनाये कोई माइने नहीं रखती इसे सिद्ध करने की किसी को जरूरत नही है, क्योंकि वे खुद ही गवाह है, अपने गुनाहों की-
मैं पूछना चाहता हूँ, हर उस आदमी से जो थोड़ा भी अपने आप को वफादार या देश और समाज के प्रति जिम्मेदार समझता हो । अगर कोई आपके परिवार या आप पर जानलेवा हमला करता है, तो..
क्या वह दूसरे से या पड़ोसी से सहायता लेने के बाद अपनी रक्षा करेगा ?
क्या वह पहले पंचायत बुलायेगा और फिर वह निर्णय लेगा कि उसे क्या करना चाहिये?-


मेरा मानना है, कि नही कोई भी कानून कोई भी धर्म उसे अपनी रक्षा एवं परिवार की रक्षा करने की स्वीकृति अवश्य देगा-

मेरे लिखने का मकसद किसी को श्रद्धांसुमन अर्पित करना नहीं है, किसी देशभक्‍त को जो हमारी रक्षा के लिए अपने आप को नष्ट कर दिया उसके लिये उसकी श्रद्धांजली में उसे याद करना और फिर उसको राजनीतिक हवा देना नही है ।
“हमारा मकसद है, कि आप, हम सभी दृढ़ प्रतिज्ञ हो उनके बलिदानों की कीमत की वापसी की - जिस दिन हम,आप दृढ़ प्रतिज्ञ हो जायेंगे, फिर न कोई २६/११ होगा ओर ना ही ऐसी वर्षगांठ आयेंगी - ”
किसी भी देश का भाग्य एवं दुर्भाग्य बनाते बिगाड़ते है, वहां के लोग । इतनी जनसंख्या के बावजूद हम इसे दुर्भाग्य के अलावा कुछ नहीं दे पा रहे है । क्योंकि हम अपना आकलन करने में असमर्थ है ! हमारे वर्त्तमान प्रधानमंत्री श्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने आप के बारे में बताया कि वह एक कमजोर प्रधानमंत्री नही है बल्कि वह एक शक्‍तिशाली और बहुत ही प्रभावशाली व्यक्‍तित्व वाले प्रधानमंत्री है । जिसका आकलन पूरे भारतवासी तो क्या वो हमलावरी भी कर चुके है । उन्होंने अपने आप को शक्‍तिशाली इसलिये बताया क्योंकि वे दोबारा सत्ता में वापस आये । उन्होंने यह नही कहा कि मैं एकमात्र ऐसा प्रधानमंत्री हूँ, जिसके समय में हजारों औरते विधवा हुई, जिनके कार्यकाल में हजारों बच्चे यतीम हुये, आखिरकार अफजल गुरू ने जिसे कमजोर और लाचार सरकार बताया ।

हमारे बीच ऐसे हजारों सवाल जेहन में समय-समय पर अवश्य कोसेंगे जिसका दर्द हम शायद सहन कर सके ।
मैं इतना अवश्य कहुंगा अपने नौजवान दोस्तों से कि हम बदलेंगे इसकी तख्दीर क्योंकि हर व्यक्‍ति बदलना चाहता है, और एक बार हम अपनी ताकत का आकलन कर ले तो हर चीज बदल सकती है, क्योंकि -
सारी शक्‍तियाँ हम मे ही समाहित है,
और हम कुछ भी कर सकते है, कुछ भी
अगर हम अपनी कमजोरियों को भूलाकर
एक नई चेतना के साथ एक नये जोश
के साथ शुरूआत करे तो-
अगर वास्तव में हम इसे रोकना चाहते है, तो हमें अपनी सोच को बदलना होगा। हमें खुद को बदलना होगा, और सच्चे मन से अपने-आप के प्रति वफादार होना पड़ेगा ।

लगे इस देश की ही अर्थ मेरे धर्म विधा धन,
करू मैं प्राण तक अर्पण यही प्रण सत्य है, ठाना ।
नहीं कुछ गैर मुमकिन है, जो चाहो दिल से तुम,
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना ॥


जय हिन्द



- मुकेश कुमार पाण्डेय

Tuesday, November 10, 2009

वनदे मातरम्





सौ साल पहले  श्री बंकिम चन्द्र चटर्जी ने इस गीत की रचना की थी। स्वतन्त्रता संग्राम के समय यह गीत क्रान्तिकारियों और देशवासियों मे जोश भरने का जरिया था। आज फिर देशवासियों मे जोश भरने का समय आ गया है। सभी देशभक्त मुसलमानों भाइयों से भी अपील है फर्जी इमामों के ऊल जुलूल फतवों को दर किनार कर वन्दे मातरम गाएं, आखिर वतन हम सभी का है। मादरे वतन से प्यार के इज़हार के लिए किसी फतवे की क्या जरुरत?

मेरा मानना है किः
किसी को वनदे मातरम् गाने के लिए मजबूर नही करना चाहिए – और दूसरी बात जो सच्चा हिनदुस्तानी है वोह ज़बरदस्ती नही बलकि दिल से वनदे मातरम् गाता है।

इतिहास:
वन्दे मातरम्‌ गीत आनन्दमठ में 1882 में आया लेकिन उसको एक एकीकृत करने वाले गीत के रूप में देखने से सबसे पहले इंकार 1923 में काकीनाड कांग्रेस अधिवेशन में तत्कालीन कांग्रेसाध्यक्ष मौलाना अहमद अली ने किया जब उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के हिमालय पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर को वन्दे मातरम्‌ गाने के बीच में टोका। लेकिन पं. पलुस्कर ने बीच में रुकर कर इस महान गीत का अपमान नहीं होने दिया, पं- पलुस्कर पूरा गाना गाकर ही रुके।

सवाल यह है कि इतने वषो तक क्यों वन्दे मातरम्‌ गैर इस्लामी नह था? क्यों खिलाफत आंदोलन के अधिवेशनों की शुरुआत वन्दे मातरम्‌ से होती थी और ये अहमद अली, शौकत अली, जफर अली जैसे वरिष्ठ मुस्लिम नेता इसके सम्मान में उठकर खड़े होते थे। बेरिस्टर जिन्ना पहले तो इसके सम्मान में खडे न होने वालों को फटकार लगाते थे। रफीक जकारिया ने हाल में लिखे अपने निबन्ध में इस बात की ओर इशारा किया है। उनके अनुसार मुस्लिमों द्वारा वन्दे मातरम्‌ के गायन पर विवाद निरर्थक है। यह गीत स्वतंत्रता संग्राम के दौरान काँग्रेस के सभी मुस्लिम नेताओं द्वारा गाया जाता था। जो मुस्लिम इसे गाना नहीं चाहते, न गाए लेकिन गीत के सम्मान में उठकर तो खड़े हो जाए क्योंकि इसका एक संघर्ष का इतिहास रहा है और यह संविधान में राष्ट्रगान घोषित किया गया है।

बंगाल के विभाजन के समय हिन्दू और मुसलमान दोनों ही इसके पूरा गाते थे, न कि प्रथम दो छंदों को। 1896 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अधिवेशन में इसका पूर्ण- असंक्षिप्त वर्शन गया गया था। इसके प्रथम स्टेज परफॉर्मर और कम्पोजर स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर थे।

1901 के कांग्रेस अधिवेशन में फिर इसे गाया गया। इस बार दक्षणरंजन सेन इसके कम्पोजर थे। इसके बाद कांग्रेस अधिवेशन वन्दे मातरम्‌ से शुरू करने की एक प्रथा चल पडी। 7 अगस्त 1905 को बंग-भंग का विरोध करने जुटी भीड़ के बीच किसी ने कहा : वन्दे मातरम्‌ और चमत्कार घट गया। सहस्रों कंठों ने समवेत स्वर में इसे दोहराया तो पूरा आसमान वंदे मातरम के घोष से गूंज उठा। इस तरह अचानक ही वन्दे मातरम्‌ और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को उसका प्रयाण-गीत मिल गया। अरविन्द घोष ने इस अवसर का बडा रोमांचक चित्र खींचा है। 1906 में अंग्रेज सरकार ने वन्दे मातरम्‌ को किसी अधिवेशन, जुलूस या सार्वजनिक स्थल पर गाने से प्रतिबंधित कर दिया गया।

प्रसिद्ध नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी और अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक मोतीलाल घोष ने बारीसाल में एकत्र हुए युवा कांग्रेस अधिवेशन के प्रतिनिधियों से चर्चा की। 14 अप्रैल 1906 को अंग्रेज सरकार के प्रतिबंधात्मक आदेशों की अवज्ञा करके एक पूरा जुलूस वन्दे मातरम्‌ के बैज लगाए हुए निकाला गया और पुलिस ने भयंकर लाठी चार्ज कर वंदे मातरम के इन दीवानों पर हमला कर दिया। मोतीलाल घोष और सुरेंद्र नाथ बनर्जी जैसे लोग रक्त रजित होकर सड़को पर गिर पड़े, उनके साथ सैकड़ों लोगों ने पुलिस की लाठियाँ खाई और लाठियाँ खाते खाते वंदे मातरम् का घोष करते रहे।।

अगले दिन अधिवेशन फिर वन्दे मातरम्‌ गीत से शुरू हुआ। 6 अगस्त 1906 को अरविन्द कलकत्ता आ गए और वन्दे मातरम्‌ के नाम से एक अंग्रेजी दैनिक ही निकालना शुरू किया। सिस्टर निवेदिता ने प्रतिबंध के बावजूद निवेदिता गर्ल्स स्कूलों में वन्दे मातरम्‌ को दैनिक प्रार्थनाओं में शामिल किया।

लेकिन नूरानी अकेले नहीं हैं जिनको देवी या माता जैसे शब्द भी सांप्रदायिक लगते हैं, 13 मार्च 2003 को कर्नाटक के प्राथमिक एवं सेकेण्डरी शिक्षा के तत्कालीन राज्य मंत्री बी-के-चंद्रशेखर ने ‘प्रकृति‘ शब्द के साथ ‘देवी लगाने को ‘‘हिन्दू एवं साम्दायिक मानकर एक सदस्य के भाषण पर आपत्ति की थी। तब उस आहत सदस्य ने पूछा था कि क्या ‘भारत माता, ‘कन्नड़ भुवनेश्वरी और ‘कन्नड़ अम्बे जैसे शब्द भी साम्दायिक और हिन्दू हैं?

1905 में गाँधीजी ने लिखा- आज लाखों लोग एक बात के लिए एकत्र होकर वन्दे मातरम्‌ गाते हैं। मेरे विचार से इसने हमारे राष्ट्रीय गीत का दर्जा हासिल कर लिया है। मुझे यह पवित्र, भक्तिपरक और भावनात्मक गीत लगता है। कई अन्य राष्ट्रगीतों के विपरीत यह किसी अन्य राष्ट्र-राज्य की नकारात्मकताओं के बारे में शोर-शराबा नह करता। 1936 में गाँधीजी ने लिखा - ‘‘ कवि ने हमारी मातृभूमि के लिए जो अनके सार्थक विशेषण प्रयुक्त किए हैं, वे एकदम अनुकूल हैं, इनका कोई सानी नहीं है।

अब हमारी जिम्मेदारी है कि हम इन विशेषणों को यथार्थ में बदलें। इसका स्रोत कुछ भी हो, कैसे भी और कभी भी इसका सृजन हुआ हो, यह बंगाल के विभाजन के दौरान हिन्दुओं और मुसलमानों की सबसे शक्तिशाली रणभेरी थी। एक बच्चे के रूप में जब मुझे आनन्दमठ के बारे में कुछ नहीं मालूम था और न इसके अमर लेखक बंकिम के बारे में, तब भी वन्दे मातरम्‌ मेरे ह्रदय पर छा गया। जब मैंने इसे पहली बार सुना, गाया, इसने मुझे रोमांचित कर दिया। मैं इसमें शुद्धतम राष्ट्रीय भावना देखता। मुझे कभी ख्याल नह आया कि हिन्दू गीत है या सिर्फ हिन्दुओं के लिए रचा गया है।

देश के बाहर 1907 में जर्मनी के स्टुटगार्ट में अंतर्राष्टीय सोशलिस्ट कांग्रेस का अधिवेशन शुरू होने का था जिसमें पं- श्यामजी वर्मा, मैडम कामा, विनायक सावरकर आदि भाग ले रहे थे। भारत की स्वतंत्रता पर संकल्प पारित करने के लिए उठ मैडम कामा ने भाषण शुरू किया, आधुनिक भारत के पहले राष्ट्रीय झण्डे को फहराकर। इस झण्डे के मध्य में देवनागरी में अंकित था वंदे मातरम्‌। 1906 से यह गीत भारतीयों की एकता की आवाज बन गया। मंत्र की विशेषता होती है- उसकी अखण्डता यानी इंटीग्रिटी। मंत्र अपनी संपूर्णता में ही सुनने मात्र से से भाव पैदा करता है। जब

1906 से 1911 तक यह वंदे मातरम्‌ गीत पूरा गाया जाता था तो इस मंत्र में यह ताकत थी कि बंगाल का विभाजन ब्रितानी हुकूमत को वापस लेना पडा, लेकिन, 1947 तक जबकि इस मंत्र गीत को खण्डित करने पर तथाकथित ‘राजनीतिक सहमति बन गई तब तक भारत भी इतना कमजोर हो गया कि अपना खण्डन नहीं रोक सका यदि इस गीत मंत्र के टुकड़े पहले हुए तो उसकी परिणति देश के टुकडे होने में हुई।

मदनलाल ढींगरा, फुल्ल चाकी, खुदीराम बोस, सूर्यसेन, रामप्रसाद बिस्मिल और अन्य बहुत से क्रांतिकारियों ने वंदे मातरम कही कर फासी के फंदे को चूमा। भगत सिंह अपने पिता को पत्र वंदे मातरम्‌ से अभिवादन कर लिखते थे। सुभाषचं बोस की आजाद हिन्द फौज ने इस गीत को अंगीकार किया और सिंगापुर रेडियो स्टेशन से इसका सारण होता था।

1938 में स्वयं नेहरूजी ने लिखा-‘ तीस साल से ज्यादा समय से यह गीत भारतीय राष्ट्रवाद से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा रहा है। ‘ऐसे जन गीत टेलर मेड नहीं होते और न ही वे लोगों के दिमाग पर थोपे जा सकते हैं। वे स्वयं अपनी ऊँचाईया हासिल करते हैं। यह बात अलग है कि रविन्नाथ टेगौर, पं. पलुस्कर, दक्षिणरंजन सेन, दिलीप कुमार राय, पं- ओंकारनाथ ठाकुर, केशवराव भोले, विष्णुपंथ पागनिस, मास्टर कृष्णावराव, वीडी अंभाईकर, तिमिर बरन भाचार्य, हेमंत कुमार, एम एस सुब्बा लक्ष्मी, लता मंगेशकर आदि ने इसे अलग अलग रागों, काफी मिश्र खंभावती, बिलावल, बागेश्वरी, झिंझौटी, कर्नाटक शैली आदि रागों में गाकर इसे हर तरह से समृध्द किया है। बडी भीड भी इसे गा सकती है, यह मास्टर कृष्णाराव ने पुणे में पचास हजार लोगों से इस गीत को गवाया और सभी ने एक स्वर में बगैर किसी गलती के इसको गाकर इस गीत की सरलता को सिध्द किया।फिर उन्होंने पुलिसवालों के साथ इसे मार्च सांग बनाकर दिखाया। विदेशी बैण्डों पर बजाने लायक सिद्ध करने के लिए उन्होंने ब्रिटिश नेवल बैण्ड चीफ स्टेनलेबिल्स की मदद से इसका संगीत तैयार करवाया।

26 अक्टूबर 1937 को पं- जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कलकत्ता में कांग्रेस की कार्यसमिति ने इस विषय पर एक प्रस्ताव स्वीकृत किया। इसके अनुसार ‘‘ यह गीत और इसके शब्द विशेषत: बंगाल में और सामान्यत: सारे देश में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीयय तिरोध के प्रतीक बन गए। ‘वन्दे मातरम्‌ ये शब्द शक्ति का ऐसा पस्त्रोत बन गए जिसने हमारी जनता को प्रेरित किया और ऐसे अभिवादन हो गए जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की हमें हमेशा याद दिलाता रहेगा।

गीत के प्रथम दो छंद सुकोमल भाषा में मातृभूमि और उसके उपहारों की प्रचुरता के बारे में देश में बताते हैं। उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिस पर धार्मिक या किसी अन्य दृष्टि से आपत्ति उठाई जाए।
जय हिन्द।