Sunday, June 30, 2013

धर्मनिर्पेक्षता पर भारी , मोदी की लोकप्रियता

धर्मनिर्पेक्षता की गुहार लगाने वाले लोग जो दिन रात धर्मनिर्पेक्षता की रट लगाये रहते है, शायद उन्हे इसका आशय नही पता।


वास्तव मे कोई भी धर्मनिर्पेक्ष हो ही नही सकता,और जो राजनैतीक दल या राजनेता इसकी गुहार लगाते रह्ते है,वो मात्र समाजिक असन्तुलन कर किसी विशेष समुदाय के प्रति अपने को हितैषी साबित करना  चाहते है, न कि पुरे समाज और राष्ट्र को धर्मनिर्पेक्ष बनाना ।

हमारे संबिधान के प्रस्तावना मे भी इसका अच्छे ढंग से विवेचना किया गया है कि , यह गणराज्य धर्मनिर्पेक्ष होगा ,परन्तु कोइ भी व्यक्ति किसी भि धर्म को अपना सकता है ।
सारे धर्मो को निर्पेक्षता से जोडा गया है । ताकि कोइ भी राज्य किसी विशेष धर्म व समुदाय के साथ जातीय न कर सके, अगर ऐसा होता है, तो उस पर संबिधान हस्तक्षेप कर सकता है।


पुर्व राष्ट्रपति डा. राधाकृषणन ने भी अपनी पुस्तक ’ रिकवरी आफ़ फ़ेथ’ मे धर्मनिर्पेक्षता का व्याख्यान किया है, जिसमे उन्होने राज्य को धर्मनिर्पेक्ष होने पर अधिक जोर दिया है और इसके साथ इस बात पर भी जोर देते हुये स्पष्ट किया है कि,धर्म के प्रति आस्था को नकारा नही जा सकता ।

हाल के बदलते घट्ना क्रम ने इसे और भी हवा दे दिया है, जिसमे नरेन्द्र मोदी को भाजपा प्रधानमंत्री के उम्मीद्वार के रुप मे देखना चाहती है,जिसके फलस्वरूप विपक्षी पार्टीया तो दूर एनडीए  के अपने घटक दलो मे काफी नाराजगी और असंतोष उभर कर सामने आया।

कुछ धर्मनिर्पेक्षता के पैरवीकार नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमन्त्री ने अपना समर्थन तक वापस ले लिया,
और वो आजकल धर्मनिर्पेक्षता की नयी परिभाषा बनाने मे लगे हुये है, वही शिवशेना जो क्षेत्रवाद की राजनीती से ओतप्रोत है, वो भी मोदी के नाम से परहेज रखने मे नही कतरा रही है, जिसका उदय ही १९९३ के दंगे के बाद हूआ और आजतक उसके पास मुद्दे भी वही है मराठी बनाम उत्तर भारतीय ।

जबकि कांग्रेस अपने आप को सर्वधर्महिताय एवं सर्वसमुदाय हितैषी बताने मे नही चुकती , उसने अपने पत्ते अब तक नही खोली है। हालांकी उसके हर चुनाव मे मोदी को संप्रदायीक, मौत का सौदागर एवं मुस्लिम विरोधी सावित करना मुख्य चुनावी एजेंडा होता है।

अगर तर्क की बात करे तो चाहे वो १९८४ का सिख दंगा हो, १९९३ क मुम्बई बम धमाका हो या फिर गुजरात का २००२ गोधरा कांड ही क्यू न हो, इन सारे दुर्घटनाओ मे जो आहत हुआ, वो सिर्फ़ और सिर्फ़ भारतीयता थी, अनेकता मे एकता क व्हाश हुआ और भाईचारे की धज्जिया उड़ी   । न तो वो सिखों पर हमला था न तो हिन्दुओ पर, नही मुस्लिमो पर ।

इसमे कोइ दो राय नही की मोदी के प्रति मुस्लिम समुदाय मे अब तक आक्रोश है,और वे उनकी छवि को संप्रदायीक तौर पर देखते है, मगर इतनी सच्चाई भी अवस्य है कि, वहा की जनता उन सब हादसो को भुलकर एक नयी उम्मीद के साथ उनके सुप्रशासन एवं विकास की छवि को अधिक महत्व दे रही है।

अगर आपको याद हो तो  पिछले गत वर्षो मे दो विवाद काफी चर्चा मे रहा , जिसमे देवबन्द के कुलाधिपति और एक वरिष्ठ पत्रकार ने उनकी छवि को संप्रदायीक के बजाय विकाश पुरुश के रुप बताया, और साथ ही  साथ वहा कि जनता से यह अपील भी की थी, कि उनकि छवि को विकाश पुरुश के रुप मे देखा जाय ।

मै किसी भी धर्म, व्यक्ति की वकालत नही कर रहा हु, न ही गडे मुर्दे उखाडने का प्रयाश कर रहा हु, मै सिर्फ़ यह बताना चाह्ता हु कि, आज की पारिस्थिति मे आम नागरिक को न तो मोदी से परहेज है, न ही अखिलेश यादव और नीतीश कुमार से उम्मीद ।

आज के तारिख मे धर्मनिर्पेक्ष वही व्यक्ति, वही सरकार हो सकती है, जो सर्वांगिण विकास की बात करे नये रोजगार के अवसर की बात करे, और भ्रष्टाचार मुक्त शाषन प्रदान करे, जो किसी विशेष समुदाय को तवज्जो देने के बजाय पुरे समाज को विश्वास दिला सके कि, उसका राज्य, उसका राष्ट्र एवं हर नागरिक सुरक्षित है।



---मुकेश पाण्डेय


Thursday, January 10, 2013

सभ्य समाज मे नारी का वजूद...

६३ वर्ष पुर्व गण्तान्त्रिक और लोक्तान्त्रिक का दावा करने वाला भारत आज भी उन्ही हालतो से गुजर रहा है जहा वह इससे पुर्व था।
लालकिले व रास्ट्रपति भवन के प्राचीर से तिरन्गा लहरा देना और दो सच्चे झुठे वादे कर देने से कोइ देश प्रजातान्त्रिक होने का दावा
नही कर सकता नही, दुनिया का विशाल संविधान बना देने से उसके प्रजान्त्रिक होने का दावा सत्यार्थ हो जाता है।

आज़ादी के इतने वर्षो के उपरान्त भी अगर हम एक अच्छे समाज का निर्माण नही कर सकते, जहा पर आप को किसी भी तरह का वन्दिश या पाबन्दी नही है, तो फिर दुसरो पर अपनी नाकामियो का इल्ज़ाम कैसे लगा सकते है।

हम आम नागरिक हमेशा सरकार से ये उम्मीद रखते है कि, वो हमारे बारे मे सोचे वो हि एक स्वस्थ और अच्छे समाज का निर्माण करे ,और हम अपने  कर्तब्यो से पीछा छुडा ले और सारे के सारे इल्जाम सरकार पर थोप दे।
मेरे कहने का मकशद यह नही की सरकार जिम्मेद्दार नही है, या उसकी जिम्मेदारि नही बनती या हम सब निसक्रिय हो गये है।

जो सबसे बडा प्रश्न हमारे जेहन मे है वो यह है कि, क्या कुछ लोगो की वजह से पुरा समाज व देश अपने आप को कलन्कित महशुस करने लगा है। अभी फिल्हाल मे जो घट्ना घटित हुयी , उससे पुरा देश अपने आप मे शर्मशार हो गया। जहा हम कुछ रोज पहले बैठकर नयी उप्लब्धियो के बखान मे लगे थे यह कहकर अच्छा लगता था कि अब वो जमाना नही रहा जहा बेटे और बेटियो मे फ़र्क हो । गावो मे भी आम लोग कहते थे कि मेरी बेटी ही मेरे बुडापे की लाठी है,मेरी बेटी वो सब कर सकती जो एक लडके को करना चाहिये।

इसमे कोइ दो राय नही कि इस तरह के बद्लाव मे सरकार कि भुमिका न रही हो,सरकार ने भी विभिन्न तरह की योजनाये निकाली यहा तक महिला रिजर्वेशन जैसे बिल भी लाने के लिये प्रयास किये गये। इससे बडी उप्लव्धि क्या होगी जिसमे पिछ्ले गत वर्षो मे देश के उच्चतम पदो पर महिलायो का दबददा रहा हो।


इतने सारे बद्लावो के बाद इतनी बडी घटना घटने का मतलब तो सिर्फ़ यही निकलता है कि चाहे कुछ भी हो , हम अपनी मनसिकता नहि बदल सकते । हम अभी भी साम होने का इन्तजार करेंगे और सुन्सान  जगह पर किसी न किसी अबला को अपने हबश का शिकार बनायेंगे।

अगर हम एक अच्छे और स्वश्थ समाज का निर्माण करना  चाहते है तो, अपने अलावा उन लोगो की मान्सिकत भी बदलनी होगी जो नारी समाज को अपने से अलग मान्ते है,उन्हे ये भी सिख देनी होगी नारी  ऐसी कोई वस्तु नहि जिसका उपयोग हम अपने केवल निजी श्वार्थ के लिये करे।

उन्हे यह भी बताना होगा की वो हमसे अलग नहई है नही वो कमजोर और लाचार है, वो हमसे आपसे बेहतर है और उनके बिना कोई कार्य पुरा नही हो सकता। वो हमारी मां भी है और बहन भी।

 मुकेश