हाल के दिनों में पूरे देश को ही नहीं बल्कि पूरे जनमानस को झकझोर देने वाली घटना घटित हुई जिसमें 100 से अधिक जाने गयीं, जिससे पूरा देश शर्मसार हुआ । यह अलग बात है, कि यह पहली बार नहीं हुआ, और ना ही पहली बार शहीदों की तिलांजलि के बाद हम उन्हें भूलने कि कोशिश किए । आज हमारा देश जो कभी पड़ोसी मुल्कों से तो कभी अपने ही लोगों के द्वारा बार-बार ऐसी घटनाओं का शिकार होता जा रहा है, और हम इसे सहज ही स्वीकार करते जा रहे हैं और हमारी मीडिया भी इस मामले में कम नही है, क्योंकि कभी नक्सली मारे जाते हैं तो ग्रीनहंट तथा , कभी जवान मारे जाते हैं तो इसे सूचना की कमी और असंतोष का कारण सिद्ध करने में लग जाते हैं । खैर वजह जो भी हो हम और हमारी सरकार इसे केन्द्र और राज्य सरकार के बीच सही तालमेल नहीं होने की वजह बताकर अपनी जिम्मेदारियों से छुटकारा पा लेते हैं । अगर ऐसा नहीं होता तो ये दंतेवाड़ा की घटना की पुनरावृत्ति नहीं होती और ना ही इतनी भारी संख्या में जवान शहीद होते ।
वास्तव में अगर देखा जाय कि नक्सलवाद क्या है? और इसका विकल्प क्या है? तो हर व्यक्ति इसका उत्तर शायद एक ही दे वो ये कि, यह असंतोष का बिगड़ा एक ऐसा स्वरूप है, जो उन लोगों के द्वारा चलाया जा रहा है, जिससे उनका कोई लेना देना ही नहीं है । अगर इसके इतिहास पर प्रकाश डालें तो -
" नक्सलवाद कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है, जो भारतीय कम्यूनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ । नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलवाड़ी से हुयी है, जहां भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 में सत्ता के खिलाफ एक सशक्त आंदोलन की शुरूआत की थी । मजूमदार कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे, और उनका मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं, जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तब का कृपितंत्र पर दबदबा हो गया है । जिसे सिर्फ सशक्त क्रांति से ही खत्म किया जा सकता है ।"
1967 में “नक्सलवादियों ने कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई, जो कम्यूनिस्ट पार्टी से अलग हो गये, और सरकार के खिलाफ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी । 1971 में आंतरिक विद्रोह हो गया । मजूमदार की मृत्यु के पश्चात् इस आंदोलन की बहुत सी शाखायें बन गईं जो आपस में प्रतिद्वंदिता भी करने लगीं ।
आज कई राजनीतिक पार्टियां जो वैधानिक रूप से स्वीकृत हैं, उनकी पृष्ठ भूमि नक्सली संगठन के रूप में ही रहा है । और वे संसदीय चुनावों में भाग भी लेती है, लेकिन बहुत से संगठन अब भी मजूमदार के सपने को साकार करने में लगे हुए हो । नक्सलवाद की सबसे बड़ी मार आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को झेलनी पड़ रही है । आज हमारा देश जो अपने आपको हर दिशा में हर क्षेत्र में समर्थवान समझ रहा है, क्या वह इन छोटी समस्याओं से निजात पाने में सक्षम नहीं है, अगर ऐसा नहीं है, तो हर 15 अगस्त और 26 जनवरी के पूर्व संध्या पर यहां के प्रतिनिधियों द्वारा दिये गये संवाद झूठे और ढकोसले के अलावा कुछ नहीं है । अगर उनके वक्तव्य वास्तव में दस्तावेजों के द्वारा सही रूप से आकलित हैं, तो इसका अर्थ है, कि सरकार और उनके सहयोगी इसे खत्म नहीं करना चाहते हैं , और उसे राजनीतिक हवा देना तथा उसके बाद चुनावी मुद्दे में तब्दील करना चाहते हैं ।
आजकल तो एक अलग तरह की संस्था का उदय ही हो गया है, जिसका नाम है- ‘मानवाधिकार संस्थान’ जिसकी पारदर्शिता पर संदेह करना उचित है, क्योंकि ये वही मुद्दे उठाते हैं, उनकी ही फरियाद करते हैं, जो समाज के शत्रु हैं, देश के शत्रु हैं । इनको देश व समाज से कोई लेना देना नहीं, क्योंकि (भाई) ये तो मानव रक्षा की बात करते हैं, मगर ये हमेशा यह भूल जाते हैं, कि देश पर शहीद होने वाले जवान चाहे वह सेना का हो, सीआरपीएफ का हो या पुलिस के जवान ही क्यों न हो उनके लिए , मानव नहीं है , उसके लिए न कोई समाज सेवी ही आगे आता हो ना ही मानवाधिकार वाले ही आगे आते हैं । इनके शब्दकोषो में न तो जवानों का कोई परिवार होता है, ना ही उन पर कोई आश्रित ही होता है । हां मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि नक्सली आतंकवादियों के मानवाधिकार तो मानवाधिकार है, लेकिन रोज वास्दी सुरंगों के विस्फोटों से मारे जा रहे, जवान और हजारों निरीह जनता के मरने पर उनके अधिकारों के बात करने वाले पत्रकारों को क्या साँप सूंघ जाता है?
मेरे लिखने का मकसद सिर्फ यह है, कि नक्सलवाद आज हमारे सामने एक ऐसी समस्या है, एक ऐसी चुनौती है, जिसके विरोध में हमें एकजुट होकर इसे समाप्त करना ही होगा । यही समाज के लिए भी कल्याणकारी है, तथा देश के लिए भी । अगर आप लोगों में किसी को यह लगे कि हम किसी समस्या का समाधान बेगुनाहों की जानें लेकर कर सकते हैं, समाज को तोड़कर या देश को तोड़कर कर सकते हैं, तो ऐसा संभव नहीं है । इसके फलस्वरूप कहीं ऐसा न हो कि एक असंतोष को समाप्त करने के लिए हम हजारों असंतोष को जन्म दे दें ।
जय हिंद
well said Mr. Mukesh Pandey, u say everything in your blog there is no need to comment but i accept some guys who not believe to write something about this topic they must read at least, Personally I appreciate your feeling's and i appreciate your dedication with India,
ReplyDeleteJai Hind
well said Mr. Mukesh Pandey, u say everything in your blog there is no need to comment but i accept some guys who not believe to write something about this topic they must read at least, Personally I appreciate your feeling's and i appreciate your dedication with India,
ReplyDeleteJai Hind
हिंदी ब्लागिंग को आप और ऊंचाई तक पहुंचाएं, यही कामना है।
ReplyDeleteयहां पधार सकते हैं -
http://gharkibaaten.blogspot.com
नक्सलवाद को समझने के लिये आपका लेख अति सहायक सिद्ध हुआ है,शुभकामनाओं के साथ धन्यवाद!
ReplyDeleteअच्छा लेख, अच्छी सोच
ReplyDeleteआगे बढते रहें।