Wednesday, September 21, 2011

अन्‍ना की हुंकार से लोकतंत्र हुआ मजबूत



"मैं अन्‍ना हूं, तुम अन्‍ना हो अब ये सारा देश अन्‍ना हो चुका है, आखिरकार ये अन्‍ना कौन है ? "

74 वर्ष का एक अवकाश प्राप्त सैनिक या 74 वर्ष का समाजसेवी या विकासशील भारत का एक ऐसा सपूत जिसने लोगों में एक नयी प्रेरणा, एक नई ऊर्जा प्रदान करने का बीड़ा उठाने वाला ऐसा सिपाही जो रहता सबके सामने, परन्तु दिखता नहीं है । 


  जिस जनआन्दोलन का नाम भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहिम बताया जा रहा है, जिसका नाम लोकपाल कानून बनाने के लिए सार्थक प्रयास बताया जा रहा है, उसमें मुझे कहीं भी किसी भी तरह से यह बात समझ में नहीं आ रही की, क्या भ्रष्टाचार 15 दिन के जनआन्दोलन से मिटाया या समाप्त किया जा सकता है? या क्या रामलीला मैदान से आह्वान कर पूरे भारत को जगाया जा सकता है ? हमें ही नहीं बल्कि आपको भी शायद ऐसा न लगे ? क्योंकि यह आन्दोलन ऐसा नहीं है । न ही इसका कोई ऐसा आधार है, जो भ्रष्टाचार को लोकपाल के तहत देश से मिटाया जा सके । मैं जानना चाहूंगा आपसे और उन तमाम देशवासियों से जो अपना योगदान इस आन्दोलन में क्या पाने के लिए कर रहे हैं । आप शायद मेरे इन तमाम प्रश्नों से यह सोच रहे होंगे कि मैं आशावादी नहीं हूं, या मुझको इस आन्दोलन के नतीजे और प्रभाव का अनुमान नहीं  है, तो यह गलत है, मैं सिर्फ यह जानना चाहता हूं कि क्या आप सभी इस आन्दोलन से सन्तुष्ट हैं या नहीं ? अगर हैं तो क्युं और नहीं तो क्यूं ?

यह आन्दोलन एक व्यक्‍ति विशेष का नहीं है, एक समिति तक ही नहीं सीमित है, परन्तु यह इतना व्यापक और हजारों ऐसे नये मुद्दों को जन्म देने वाला है, जिसमें किसी व्यक्‍ति विशेष का योगदान महत्वपूर्ण होते हुए भी नहीं है । अगर इसका महत्व है तो इसलिए क्योंकि यह जनता को जागरूक करने का एक प्रयास अवश्य किया गया है ।
एक बार सबको दूसरे की गलतियों को देखने का आभास अवश्य कराया है ? चाहे वह मौजूदा सरकार की हो या पुलिस प्रशासन या किसी भी स्तर का क्यूं न हो !हम जहां ये नारे लगा रहे हैं कि “अब तो जनता जाग गई है" उसको  हम केवल कहने में विश्‍वास रख रहे हैं !

  क्या वास्तव में जनता जाग गई है तो रात नहीं आयेगी ? या हमेशा के लिए जाग गई है ! क्या आज जिन नेताओं को मंचों से अभद्र और गवार बताया जा रहा है, वो वास्तव में उसे कल तक याद रख पायेंगे या नहीं ?
   भाइयों हमारा इतिहास रहा है , कि हम रोज जागते और रोज सोते हैं । इसलिए यह आन्दोलन और मुद्दे जन्म लेते हैं ।

            आज हम जिस आन्दोलन के तहत किसी विशेष तंत्र को कानून बनाने की मांग कर रहे हैं, वह कितना प्रभावशाली या भ्रष्टाचार निरोधक होगा यह तो समय ही बतायेगा, परन्तु एक बात तो अवश्य निकल कर सामने आयी है और वह है, जनता की अदालत की चौखट पर कोई भी सरकार, कोई भी नेता, कोई भी पार्टी बड़ी नहीं है, न ही उसकी मनमानी चलेगी ।

हमलोग जो आम आदमी है, उसकी आवाज को बुलंद करने का एक रास्ता मिल गया है, जिससे कोई भी सरकार कोई भी जनप्रतिनिधि एक बार गलत काम करने से पहले अवश्य सोचेगा । दूसरी जो सबसे बड़ी उपलब्धि इस जनआन्दोलन की है वो है इसमें सरकार में शामिल लोगों तथा जनप्रतिनिधियों को समझने और परखने का मौका  ।

इस जनआन्दोलन से एक बार लोकतंत्र को मजबूती अवश्य मिली है, जिसमें यह कहा गया है, कि जनता सर्वोपरि है, और उसके अहित की बातें करने वालों को बख्शा नहीं जा सकता ।
भाइयों आजादी मिल जाना ही महत्वपूर्ण नहीं होता, महत्वपूर्ण यह होता है कि, उस आजादी का उपभोग उस देश का हर एक नागरिक कर रहा है कि नहीं -

  संविधान में नये नियम कानून बना देने से ही किसी समस्या का समाधान नहीं होता, बल्कि जरूरी यह होता है कि वह कितना प्रभावशाली है ?अगर हम उदाहरण के तौर पर देखें तो बहुत सारे कानून हैं, जो भ्रष्टाचार को मुक्‍त करने के लिए सक्षम हैं, परन्तु होता क्या है, न हम भ्रष्टाचार मिटने देना चाहते हैं और न ही वैसे लोगों का समर्थन ही करते हैं ।

परन्तु सौभाग्यवश आजादी के बाद पहली बार जनता के जागरूकता की वजह से इतना बड़ा जनआन्दोलन सार्थक रूप से सफल रहा । हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें अन्‍ना जैसे व्यक्‍ति के अत्यंत प्रभावशाली नेतृत्व की वजह से एक नयी सुबह को देखने और भाग लेने का मौका मिला ।

120 करोड़ आबादी वाले देश में लोकपाल का अर्थ और प्रभाव न जानने के बावजूद भी जनता ने बढ़चढ़कर जो दिलचस्पी ली, वो सिर्फ यही संकेत देता है कि- अब हम जाग चुके हैं । हमी गांधी, भगत सिंह और सुभाष के सपूत हैं । अब यहां कोई जयचंद या धृतराष्ट्र नहीं राज कर सकता न ही उसकी मनमानी चलेगी ।

इतनी जागरूकता और युवाओं के समर्थन और प्रदर्शन के बाद भी अगर कुछ राजनेता नजर अंदाज और संसद की गरिमा की बात करने वाले संसद में संसद की मर्यादा का हनन कर रहे हैं, उन्हें अवश्य ही यह सोच लेना चाहिए कि अब सारा देश जो अन्‍ना या गांधी अपने को मान लिया है वो उन्हें बख्शने वाली नहीं है । क्योंकिओ अन्‍ना और गांधी कोई व्यक्‍ति नहीं एक सोच है, जिससे पूरा भारत का जनसैलाब एक नये परिवर्तन की ओर अपने आप को अग्रसर देख रहा है-

क्योंकि मैं वो अन्‍ना हूं, जो एक नये युग का निर्माण करने में एक नये भविष्य को जन्म देने वाला है ।

जय हिन्द

मुकेश पाण्डेय          

Saturday, April 23, 2011

देश आजाद जनता गुलाम

कहने को लोकतंत्र परन्तु वास्तव में क्या हम इसके नियमों का पालन कर रहे हैं, या हमने जिसे चुना है, वो इसको साकार कर रहे हैं, या नहीं । अगर नहीं तो कौन है? इसका जिम्मेदार जनता या सरकार ।

कभी भी टूट सकता है, जनता के सब्र का बाँध । क्योंकि जनता अब काफी जागरूक हो चुकी हैं, क्योंकि आजादी के बाद अब तक की जितनी सरकारें हुईं उन्होंने देश का भला कम और अपना भला ज्यादा किया है ।
आज जो सबसे बड़ा प्रश्न है, वो यह है, कि क्या हम  1950  के बाद से पूर्णरूप से आजाद हुए हैं, या नहीं । अगर हैं, तो इतना वबंडर और सरकारों या राजनेताओं पर दोषारोपण क्यूं? और इन पर इतने इल्ज़ामात क्यूं? आखिरकार ये सरकार चलाने वाले तंत्र आखिर हम आपमें से ही तो हैं । इन्हें हमने ही तो ऐसा करने का मौका दिया है । तो फिर पछतावा क्यूं? परन्तु अगर हम, फ्लैशबैक में जायें और अंग्रेजी शासन व्यवस्था की तुलना अबतक की सरकारों से करें, तो कुछ मूल बिंदुओं पर हम इनमें शायद अंतर स्पष्ट न कर सकें । वो मूल बिन्दु है, भ्रष्टाचार, कालेधन की कमाई, जनता का शोषण, नस्लभेद, क्षेत्रवाद, क्योंकि ये सारी की सारी समस्यायें तब भी थी और आज भी है ।
हाँ फर्क इतना है, कि तब का भारत न तो एक देश था, न ही एक गणराज्य बल्कि तब टुकड़ों में विभाजित था, और आपसी मतभेद, सत्तालौलुप शोषण आदि सामाजिक बुराईयों से भरा पड़ा था । जिसके परिणामस्वरूप बाहरी आक्रमणकारियों ने इसे अपनी कमाई का ज़रिया बनाकर और यहां के लोगों का शोषण किया है, परन्तु स्थिति आज भी वैसी ही है । बहुत कुछ नहीं बदला है, हाँ बदला है, तो लोगों का रहन-सहन सोचने की क्षमता ।
जब देश गुलाम था तो अंग्रेजों के खिलाफ देश को एकजुट करने का बीड़ा जब गाँधी जैसे लोगों ने उठाया तो पूरा देश एक मंच पर आ गया जिससे अंग्रेजों जैसे बुद्धिमान और ताकतवर लोगों को भी हार मानना पड़ा । अगर मौजूदा स्थिति की बात करें तो आज भी देश कहने को तो आजाद है, परन्तु इसकी सत्ता जिन लोगों के हाथों में है, वो यह भूल गये हैं, कि उनका इस देश के प्रति क्या कर्तव्य होना चाहिये । अगर हम कुछ मुद्दों और शासन प्रणाली या सरकार के अधिकारों की बात करें तो लोकतंत्र एकमात्र जनता को गुमराह करने वाला शब्द है । और कुछ नहीं क्योंकि यहां की सरकार के पास जितने भी अधिकार हैं, वो उसको किसी भी प्रकार से उसको मनमानी करने से नहीं रोक सकता । और जनता लाचार ही लाचार तब तक बनी रहेगी, जब तक की अगली सरकार चुनने का मौका उसे न मिले ।
आज देश जागरूक हो रहा है, और जनता को भी एक मंच पर लाने वाले लोग मिलने लगे हैं, जिनके कार्यों से आप या हम किसी भी प्रकार का संदेह नहीं कर सकते ।  आज देश दो गुटों में बंट चुका है । एक है, सरकार पक्ष (या सत्तापक्ष चाहे वो किसी भी राजनीतिक दल से हो) दूसरा पक्ष समाजसेवी या सीधे शब्दों में कहें तो अन्‍ना हजारे जैसे लोग ।
        मौजूदा सरकार कहने के लिए भ्रष्टाचार कालेधन और अन्य कई मुद्दों के खिलाफ मनमोहन सिंह जी के नेतृत्व में लड़ रहा है । वहीं दूसरी तरफ अन्‍ना हजारे जैसे लोगों के सामने आने से जनता को एक नई रोशनी भी मिल गयी है । अब जंग की शुरूआत भी एक मुद्दे से दोनों गुटों के बीच शुरू हो गई जो है- लोकपाल विधेयक
अगर हम इसे ‘देश आजाद जनता गुलाम’ के दृष्टिकोण से सोचें तो यह लोकपाल विधेयक एकमात्र बहाना है, जिसमें जनता के घेरे में सरकार है । बात न तो एक कमेटी के निर्माण एवं अधिकार तक ही सीमित है, बल्कि आम जनता इसको अपने मूलभूत अधिकारों से जोड़ रही है । और मैं कहता हूं, क्यूं नहीं जोड़े क्योंकि यह तो एकमात्र सरकारों की मनमानी के खिलाफ शुरूआत है । आज पहली बार आजादी के बाद ऐसा देखने व सुनने को मिला होगा, जिसमें जनता ने सारी राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ जन‍आंदोलन किया हो । सरकार की बात करें तो मनमोहन सिंह जी देश के प्रति वफादार कम और पार्टी के प्रति ज्यादा ही वफादार हैं और हों भी क्यूं नहीं, क्योंकि इनकी भी पृष्ठभूमि पार्टी के वफादारी से ही तो है ।
जब अन्‍ना हजारे जैसे लोग गाँधी जी के मार्ग का अनुसरण करते हुए जिस प्रकार सरकार को अपने आगे झुका दिया हो या बेबश कर दिया हो तो इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है । जहां पर देश में विभिन्‍न भागों में रोज-रोज न जाने कितने आंदोलन हो रहे हैं, परन्तु जो तरीका अन्‍ना हजारे जी का है, वो काफी सराहनीय है क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो बच्चे से लेकर बूढ़े तक मजदूर से लेकर फिल्म स्टार तक, नौकर से लेकर अफसर तक इनके मंच पर नहीं आते । एक बार फिर अन्‍ना हजारे जी के इस आंदोलन ने यहां के लोगों को एकजुट होकर अपने हक की लड़ाई लड़ने का तरीका जो सिखला दिया है ।

और एक बार फिर से देश के लोग एकजुट होकर अपनी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो चुके हैं । लोकपाल विधेयक तो एकमात्र बहाना था, जिसमें जनता के समक्ष सरकार को झुकना पड़ा- ‘क्योंकि अभी तो ये अंगड़ाई है, आगे बहुत लड़ाई है ।’ और मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि अब जनता आजाद होना चाहती है । और इसे रोकना आसान नहीं होगा - क्योंकि पूरे आवाम की एक ही आवाज है ।
                 दररे-दररे से निकला बस यही आवाज है,
                 आगे अन्‍ना तुम चलो, हम तुम्हारे साथ हैं ।  


                                 जय हिन्द......