Wednesday, September 22, 2010

किसका वजूद कितना पक्‍का राममंदिर या बाबरी मस्जिद का?

एक बार फिर से हमारा देश भारत  इतने विकास और उत्थान के बावजूद भी भावनात्मक विवादों की लड़ाइयों के आगे अपने आप को उबार नहीं सकेगा ?

क्योंकि यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसमें कुछ भी टिप्पणी करना आसान नहीं होगा । हम आज जिस फैसले का इंतजार कर रहे हैं, वो वास्तव में क्या दोनों के वजूद को साबित करने के लिए पुख्ता है? अगर नहीं तो ऐसे मामले न्यायालयों में या संगठनों के सहयोग या सलाह से नहीं सुलझाए जा सकते?

सबसे बड़ा सवाल इस मुद्दे का यह है कि अयोध्या का नाम अगर आज भी अयोध्या है, तो वह एक इत्तफ़ाक नहीं हो सकता । अगर वास्तव में बाबर ने वहां मंदिर न तोड़कर वहां मस्जिद का नये रूप से निर्माण करवाया तो उस पर विवाद कैसा? अगर उस मस्जिद पर विवाद है? तो और मस्जिदों और मंदिरों पर क्यूं नहीं?

आज सब लोग जो चाहें हिन्दू सम्प्रदाय से जुड़े हों या मुस्लिम समुदाय से, इन सब चीजों को मुद्दा बनाना महज एक समुदाय का दूसरे समुदाय के प्रति घृणा पैदा करना है, न कि किसी का हित सोचना क्योंकि न तो हिन्दू समुदाय के हितकारी उसे मंदिर ही बनने देना चाहते न ही मुस्लिम समुदाय के वादी प्रतिवादी उसे मस्जिद ही रहने देना चाहते हैं । सबसे बड़ा प्रश्न यह भी है, कि हम आज भी इतिहास को कुरेदने की कोशिशों में लगे हुए हैं, जिससे भारतीय हमेशा आहत हुए हैं ।

हमारे ही कुछ लोग इस मुद्दे को हिन्दू और मुसलमानों के वजूद की लड़ाई से भी जोड़ने का प्रयास करते हैं, क्योंकि ये वो भली-भाँति जानते हैं, कि अगर हम इसे संप्रदाय से जोड़ते हैं तो हमारा लाभ अवश्य निकल आयेगा ।

बात वजूद की निकली है, तो किसका वजूद कितना पक्‍का है आप स्वयं इसका आंकलन कर सकते हैं? क्योंकि भारत जब मुगलों के द्वारा आहत हुआ तो न जाने कितने मंदिर टूटे होंगे, कितनी मस्जिदें बनी होंगी, पर उनमें से केवल अयोध्या में ही किसी मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद क्यूं है? अगर भारत का इतिहास और इतिहासकार इस बात की पुष्टि करते हैं, कि पहले मुगल भारत पर आक्रमण करने आये । और न जाने कितनी बार यहां के लोगों पर अत्याचार किया और इसे बार-बार लूटा । उन सारे मुगलों का एक ही मकसद था लूटना और यहां से धन चुराकर अपने प्रदेश वापस चले जाना । परन्तु इतिहास के पन्‍नों में बाबर एक ऐसा हमलावरी था जिसने अपना साम्राज्य यहां स्थापित किया । जिससे एक बात तो स्पष्ट हो ही चुकी कि वजूद पुराना बाबर का है, या भारत का?

उस भारत का जहां की सभ्यता दुनिया के अन्य देशों से काफी विकसित थी । उस भारत का जहां न कोई सम्प्रदाय हुआ करता था, न ही आपसी कोई टकराव । मुगलों से पहले का भारत और मुगलों के बाद का भारत काफी बदल चुका था । क्योंकि उससे पहले न कोई धर्म परिवर्तन ही हुआ था ना ही मस्जिदें तोड़कर मंदिर ही बने थे । हां ऐसा अवश्य होता था कि राम और रहीम सबके दिलों में होते थे न कोई राम और रहीम को अलग समझा, न ही रहीम या राम के नाम पर ईर्ष्या की ।

हम सब जानते हैं, पूरी दुनिया जानती है, कि अयोध्या राम की जन्म भूमि थी, और है । परन्तु इस तथ्य का न ही कोई सबूत है, न ही दिया जा सकता है? इस बात से मुस्लिम समुदाय जो इस मुद्दे में प्रतिवादी और वादी के रूप मे न्यायालयों में गुहार लगा रहे हैं, वह भी इस बात से इनकर नहीं करते कि अयोध्या ही राम की जन्मभूमि है, और आज की तारीख में अयोध्या ही दुनिया का एक मात्र ऐसा नगर है, जहां हर घर में राम-जानकी का मंदिर है ।

तो एक बात और स्पष्ट हो ही जाती है कि अयोध्या में मंदिर था या नहीं? हाँ विवाद यह है, जिसमें हिन्दू समुदाय बाबरी मस्जिद को ही राम मंदिर मानते हैं और उनके अनुसार प्राचीन राम मंदिर को तोड़कर बाबर ने बाबरी मस्जिद का प्रारूप दिया था, जबकि मुस्लिम समुदाय इस बात को मानने से बिल्कुल इन्कार करते हैं । तथा वो इस मस्जिद के बारे में यह बताते हैं, कि बाबरी मस्जिद का निर्माण बाबर ने नये रूप से खाली जगह में कराया था । जहां पर कोई भी मंदिर नहीं था । ना ही कोई मंदिर तोड़कर उसे मस्जिद बनाया गया ।



अगर विवाद के इतिहास पर नजर डालें तो इसको 61 साल लगभग हो चुके हैं । विवाद की शुरूआत 22-23 दिसम्बर 1949 से हुई थी, जिसके तहत मस्जिद के अंदर चोरी छिपे मूर्तियां रखने से कथित तौर पर हुआ । और अब यह मुद्दा काफी तूल पकड़ चुका है, जिसका निर्णय उच्च न्यायालय के हाथ में है । अगर देखा जाय तो दर्जनों वाद बिंदुओं पर फैसला आना है, लेकिन मुख्य मुद्दा ये है, कि वहां पहले राम मंदिर था या बाबर ने मस्जिद रिक्‍त जगह में बनवायी थी ।

बाबरी मस्जिद और विवादित घटना क्रम ः

1 * मस्जिद के अन्दर मूर्तियां रखने का मुकदमा पुलिस ने अपनी तरफ से करवाया जिसकी वजह से 29 दिसम्बर 1949 में मस्जिद के कुर्की के बाद ताला लगा दिया गया और तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष प्रिय दत्त राम के देख-रेख में मूर्तियों की पूजा की जिम्मेदारी दे दी गयी ।

2 * 16जनवरी 1950 में हिंदू महासभा के कार्यकारी गोपाल सिंह विशारद ने मूर्तियों की पूजा के लिए सिविल कोर्ट में अर्जी दायर की जिसके फलस्वरूप सिविल कोर्ट ने पूजा आदि के लिए रिसीवर व्यवस्था बहाल रखी ।

3 * 1949 में निर्मोही अखाड़ा ने अदालत में तीसरा मुकदमा दर्ज किया जिसमें कोर्ट से यह अपील थी कि उस स्थान पर हमेशा से राम जन्म स्थान मंदिर था, और वह निर्मोही अखाड़ा की संपत्ति है ।

4 * 1961 में सुन्‍नी वर्क्फ़  बोर्ड और कुछ स्थानीय मुसलमानों ने चौथा मुकदमा दायर किया जिसमें यह जिक्र था कि बाबर ने 1528 में यह मस्जिद बनवायी जो 1949, 22/23 दिसम्बर तक यहां नमाज अदा किया गया है ।

5 * मुस्लिम पक्ष का तर्क यह था कि निर्मोही अखाड़ा ने 1887 के अपने मुकदमे में केवल राम चबूतरे का दावा किया था न कि मस्जिद पर जिससे मुस्लिम पक्ष राम चबूतरे पर हिंदुओं के कब्जे और दावे को स्वीकार करता है ।

6 * और मुस्लिम पक्ष यह भी मानता है कि अयोध्या राम की जन्मभूमि भी है । परन्तु बाबरी मस्जिद खाली जगह पर बनायी गयी थी न की तोड़कर ।

7 * लगभग 40 सालों तक यह विवाद लखनऊ तक ही था, परन्तु 1984 में विश्‍व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोग से राम जन्मभूमि मुक्‍ति यज्ञ समिति ने इसे राष्ट्रीय मंच पर एक अभियान की तरह ला खड़ा किया ।

8 * 1986 में स्थानीय वकील उमेश चन्द्र पाण्डेय की दरख्वास्त पर जिला जज फैजाबाद के.एम. पाण्डेय ने विवादित परिसर खोलने को एकतरफा आदेश दे दिया, जिसकी तीखी प्रतिक्रिया मुस्लिम समुदाय के तरफ से हुई ।

9 * फरवरी 1986 में बावरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन हुआ और मुस्लिम समुदाय ने संघर्ष शुरू कर दिया ।

10 * 1989 में राजीव गाँधी ने चुनावी रैली को संबोधित किया जिसमें उन्होंने वहां की जनता को फिर से रामराज्य के सपने दिखाये । उसी समय विश्‍व हिन्दू परिषद ने वहां मंदिर का शिलान्यास भी कराया ।

11 * 90 के दशक में यह मुद्दा राजनीतिक मोड़ ले चुका था जिसमें राजीव गाँधी ने तथा अन्य पार्टियां जैसे भारतीय जनता पार्टी ने भी इसे राजनीतिक हवा देने की कोशिश की ।

12 * 1990 में कुछ राम भक्‍तों ने मस्जिद पर धावा भी बोला जिससे मस्जिद कुछ आहत भी हुआ ।

13 * 6 दिसंबर 1992 में देशव्यापी हिंन्दुओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया तथा मस्जिद के गुबंद को ध्वस्त कर दिया, जिसके फलस्वरूप जगह-जगह पर दंगे हुए, जिसमें काफी लोग मारे भी गये ।

14 * 2002 में एक बार फिर से देशव्यापी कार सेवकों ने अयोध्या चलो आंदोलन के तहत भाग लिया । परन्तु साधन व्यवस्था और सरकार के प्रयास से अयोध्या में कोई विवाद नहीं हुआ लेकिन गुजरात की तरफ लौटने वाले कार सेवकों को मुस्लिम समुदाय के हमले का शिकार होना पड़ा ।



इन सारी घटनाओं से यही निष्कर्ष निकलता है, कि यह मुद्दा न तो ६१ साल पुराना है, न ही किसी समुदाय के पक्ष का न ही विपक्ष का और ना ही किसी का वजूद ही पक्‍का होना है । हां एक बात तो अवश्य तय है, कि निर्णय किसी के भी पक्ष में क्यों न जाये, इसे न तो वहां मस्जिद बनना है, न ही मंदिर ।

क्योंकि अगर फैसला मस्जिद के पक्ष में जाता है, तो हिन्दू समुदाय उस फैसले को स्वीकार नहीं करेगा, और अगर फैसला हिंदू समुदाय के पक्ष में जाता है, तो मुस्लिम समुदाय उसे नहीं स्वीकार करेगा । क्योंकि ये ऐसे मुद्दे हैं जिसका फैसला वहां के लोग करेंगे, इस देश की जनता करेगी, और जनता सिर्फ शांति चाहती है । न तो वह दंगा चाहती है, न ही एक समुदाय का दूसरे समुदाय से घृणा ही जानती है । और हम तो उस देश के रहने वाले हैं, जहां पर हमारे लिए प्रेम ही सबकुछ है? हम उस मंदिर और मस्जिद के लिए क्यों लड़ें, जो हमारे अपनों के ही कब्र के ऊपर बनी हो? हम ऐसे उस राम और रहीम को उन मंदिर मस्जिदों से मुक्‍त कर देना चाहते हैं, जो कि विवादित ढांचों में बसते हैं ।

हम उस राम, रहीम को अपने हर भाईयों के हृदय में देखना चाहते हैं, जहां एक ही हृदय में मंहिर भी हो, मस्जिद भी, गिरजा घर और गुरूद्वारा भी-

क्योंकि मंदिर और मस्जिद का वजूद हमारे और आपसे है । हम रहेंगे तो मंदिर में भी नमाज अदा कर लेंगे, हम रहेंगे तो मस्जिद में भी दीप जला लेंगे और हमारे राम रहीम भी तो यही कहते हैं-

“मोको कहाँ ढूंढ़े है बंदे, मैं तो  तेरे  पास में.........”

 - मुकेश पाण्डेय

Monday, August 23, 2010

यह जो देश है मेरा

हमारा देश, आपका देश, हर उस नागरिक का देश जो, उसे एक पहचान देता है, उसे एक प्रेरणा देता है, जिसकी वजह से उसे पूरी दुनिया में पहचाना जाता है । विश्‍व में न जाने कितने देश होंगे, जिसके बारे में सबके पास शायद जानकारी न हो, परन्तु बहुत से महापुरूष दुनिया में ऐसे हुए जिनकी वजह से उस देश के बारे में लोगों की दिलचस्पी बढ़ी हो ।

आज हम 64 वाँ स्वतंत्रता दिवस बहुत ही हर्षौल्लास एवं उत्साह के साथ मना रहे हैं, जिसकी गरिमा, जिसकी प्रतिभा और उसके प्रेम और सौहार्द्र की वजह से पूरी दुनिया नतमस्तक हुई है । चाहे वह कोई क्षेत्र क्यूं न हो।
यह जो मेरा देश भारत जिसका इतिहास काफी पुराना है, जिसको बड़े से बडे दर्शनशास्त्रियों ने अलग-अलग नाम से परिभाषित किया है, यह हमारे लिए तथा पूरे भारतवासियों के लिए बड़े ही फक्र की बात है ।

हमारा देश भारत जहां इतनी विविधतायें होने के बावजूद भी एकता, प्रेम व शांति का प्रतीक बना हुआ है, यह बहुत ही असाधारण बात है । इतने बाहरी आघातों के बावजूद भी अपने को कभी विचलित नहीं होने दिया है । इसके लिए हम सबको शुक्रगुजार होना चाहिए उन लोगों का, जिन्होंने विषम परिस्थितियों में भी, इस देश के लिए, हमारे-आपके लिए, आने वाली नस्लों के लिए सबकुछ अर्पित कर दिया ।

आज हम आजाद उस पंक्षी की तरह हैं, जिसका बसेरा पूरे विश्‍व, यूँ कहें तो पूरे भूखण्ड के हर कोने में है, कोई ऐसा देश नहीं होगा, जहां अपने देश की महक और संस्कृति की खुशबू न मिले। जरूरत है इस खुशबू को बनाये रखने की , और जो प्रेम व शांति का संदेश हमारे पूर्वजों ने दुनिया को पढ़ाया है, उसे याद दिलाते रहने की । यह अलग बात है कि बहुत से पड़ोसी हमारी इस अखण्डता और हृदय विशालता से जलते रहते हैं, तो इसका मतलब यह तो नहीं की हम भी इंसानियत का दामन छोड़ दें ।  हम कैसे भूल जायें की जो शांति का संदेश, बुद्ध व बापू ने दुनिया को पढ़ाया, जिस हृदय-विशालता और धर्म समन्वय से पूरी दुनिया को एक परिवार मानने का संकल्प हमने लिया है, उसे आसानी से कैसे भूल जायें -
            "अगर नफरत करने वाले नफरत का दामन नहीं छोड़ते तो हम प्यार करने वाले मोहब्बत और प्रेम का दामन क्यों छोड़ दें "!

 क्योंकि हमने हमेशा दूसरों को अतिथि के रूप में देखा है, और हमारी संस्कृति के अनुसार हर अतिथि भगवान की तरह माना गया है, यह अलग बात है कि उन अतिथियों की नीयत शैतानों की तरह रही। हमारे देश पर न जाने कितने हमले हुए न जाने कितनी बार इसकी संस्कृति को बर्बाद करने की कोशिश की गयी । कभी मुगलों ने तो कभी अंग्रेजों ने हमारे ऊपर बहुत अत्याचार किये, परन्तु हमने सबको गले लगाया, और आज भी लगाते हैं, और हमेशा लगाते रहेंगे ।
जिन मुगलों ने इस देश को बर्बाद करने की कसम ली, जिन्होंने इसे कभी सोमनाथ के रूप में लूटा तो कभी, हमारी धर्म और संस्कृति का बालात्कार किया । परन्तु हमने उन्हें, प्रेम व शांति से अपने बड़प्पन का एहसास कराया, अगर ऐसा नहीं होता तो अकबर हमारे इतिहास के पन्‍नों में स्वर्ण अक्षरों से महान नहीं कहलाता ।

हमने हमेशा दुनिया को बिना भेदभाव के अपना परिवार मानकर फूल ही प्रस्तुत किया है, और वे हमें बार-बार जख्म देने की कोशिश में लगे रहते हैं, परन्तु आज की स्थिति यह है कि पूरी दुनिया ने हमारा लोहा माना है, और मानते रहेंगे।

क्योंकि आज दुनिया के महान वैज्ञानिक और विकसित देश जिन सपनों को साकार करने में प्रयासरत हैं, वे कहीं न कहीं हमारी असाधारण उपलब्धियों का ही परिणाम है । आप किसी भी क्षेत्र में देख सकते हैं, बात शुरू करते हैं राजनीति से, तो दुनिया को राजनीति करने की तरीके और सहजता से लोगों के हृदय में जगह बनाने का श्रेय हमारे ही नेताओं को जाता है । क्योंकि दुनिया के लिए लड़ने वाला कोई नेता हुआ तो वो गाँधी और सुभाष हुए जिन्होंने अपने लोगों के अलावा दूसरे देशों में अपनी असाधारण प्रतिभा से लोगों के हृदय में जगह बनायी ।
आज भी दुनिया विवेकानन्द जी को एक अनूठे रहस्य की तरह ही जानती है, जिन्होंने बहुत ही कम समय में पूरे संसार को नैतिकता और उनके कर्तव्यों का पाठ पढ़ा गये । आज भी डॉ. भामा अमेरिका जैसे देशों के लिए रहस्य ही है । खेल की बात करें तो ध्यानचंद से लेकर सचिन तेंदुलकर के आसपास दुनिया का कोई भी खिलाड़ी अपने-आप को बौना ही पाता है । शिक्षा की बात करें तो दुनिया यहां की शिक्षा, और यहां के इंजीनियरों और डॉक्टरों से लेकर अर्थशास्त्रियों के लिए अपना आँचल बिछाये रहते हैं । ये सब हमारे लिए बड़े ही फक्र की बात है,और क्यूं न हो । क्योंकि ये सब हमने बड़े ही बलिदान और त्याग के बाद पाया है ।

हमारे बहुत से अपने, जो देश के बाहर रह रहे हैं और जो आज अपने कार्यों के वजह से, व्यवसाय के वजह से या शिक्षा एवं रोजगार की वजह से भले ही बाहर हैं, लेकिन वे हमेशा ही अपने देश , अपने लोगों के लिए कुछ कर गुजरने की चाहत ही नहीं बल्कि कुछ कर गुजरते हैं । जिससे हम सभी  को तथा इस देश को बड़ा ही नाज होता है, चाहे वो सुनीता विलियम्स, कल्पना चावला हों या उद्योगपति, लक्ष्मीनिवास मित्तल जी क्यों न हों ।
ये कोई भी प्रगति का कार्य करते हैं, तो हम यह महसूस करते हैं, कि हमारा तिरंगा आज ब्रिटेन में लहरा रहा है, आज ब्रिटेन जिसने भारत पर लगभग 200 सालों से अधिक दिनो तक राज किया, वहां पर हमारा मित्तल अकेले ही हजार सालों तक राज कर सकता है, इसे हम ब्रेन-ड्रेन न कहकर ब्रेन-गेन अवश्य कह सकते हैं ।

मैं उम्मीद करता हूँ, कि यहां का हर वो नागरिक अपने-आप पर यह गर्व अवश्य करता होगा कि उसके दिल में अपने इस वतन के लिए मर-मिटने की और कुछ नया कर गुजरने का उत्साह जरूर  आता होगा । और हो भी क्यों नहीं क्योंकि उसके रबों में भी तो यही खून दौड़ता है।

आज की तरीख में भी यहां का हर सिपाही, हर जवान, अपने आप को अपने परिवार, अपने लोगों के बजाय देश के लिए शहीद होने पर फक्र करता है । तभी तो पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश जैसे बुरी नजर वाले देशों को इधर आँख घुमाने पर भी सहमना पड़ता है। हमने आजादी के बाद कई छोटी बड़ी लड़ाइयाँ अवश्य देखी हैं, जिसमें हमारे अनेक वीर सपूत अपने देश की रक्षा, सरहदों को बरकरार रखने के लिए हँसते-हँसते शहीद हो गये, अगर उन शहीदों की माताओं से पूछा जाय, उनकी विधवाओं से पूछा जाय की आप का बेटा शहीद हो गया, इस पर आपका क्या कहना है, आपके पति शहीद हो गये आप पर क्या असर पड़ेगा? तो हर माँ का एक ही जवाब होता है, कि अगर मेरे और बेटे होते तो वे भी इस देश के लिए कुर्बान हो जाते।

इससे आप अनुमान लगा सकते हैं, कि हम अन्दर से भी उतने ही मजबूत हैं, जितने की बाहर से ।उस देश का विकास क्यों नहीं होगा? उस देश का पताका क्यों नहीं लहरायेगा, जहां पर हर व्यक्‍ति अपने-आप को देश पर मर मिटने के लिए हमेशा तैयार रखता है ।
आप सोचेंगे कि आज की तारीख में हमारे देश में इतना भ्रष्टाचार है, इतनी लाचारी, बीमारी है, जो कभी ठीक से खड़ा नहीं हो सकता था, वो क्या किसी का नेतृत्व करेगा? वो क्या किसी को सहारा देगा?
तो आपका यह सोचना और ऐसा आंकलन करना बिल्कुल गलत और अप्रमाणित है, क्योंकि अगर ऐसा होता तो दुनिया में बड़े-बड़े अनुसंधान नहीं होते, दुनिया के शक्‍तिशाली देश अपना भविष्य, अपना कारोबार, यहां के सहयोग के बिना निर्धारित नहीं कर पाते । आज फ्रांस, जर्मनी इजराइल, अमेरिका, रसिया जैसे देश अपनी दिलचस्पी हममें नहीं रखते ।

अंत में एक बार फिर से पूरे देशवासियों, भारतवासियों, हिन्दुस्तानियों से यह आग्रह व उम्मीद करता हूँ, कि वे हमारे इस देश को एक ऐसा उपहार दें, जिससे पूरी दुनिया नतमस्तक हो जाये ।
                                         जय हिन्द

Tuesday, July 27, 2010

**बात निकली है, तो दूर तलक जायेगी***

                       
       कश्मीर घाटी में बदलती स्थिति और तनाव सरकार की दोहरी नीति की ओर इशारा कर रही है, जहाँ सरकार अर्द्धसैनिक बलों को हटाकर सेना द्वारा फ्लैग-मार्च करा कर वहां की जनता के बीच आक्रोश बढ़ा रही है । वहीं सरकार के घटक दल के रूप में उमर अब्दुला अलग ही राग अलाप रहे हैं । जिससे सरकार की दोहरी नीति साफ झलक रही है ।
आज की तारीख में कश्मीर समस्या देश के सामने तथा मौजूदा सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है, क्योंकि आतंकवाद की जड़ वहीं से शुरू होती है । आज सरकार जो आतंकवाद से लड़ने का दावा कर रही है, तथा बार-बार पाकिस्तान से वार्ता के लिए इच्छा व्यक्‍त कर रही है, वो स्वयं अपने घटक दलों पर लगाम कसने में असमर्थ है । जो स्थिति पाकिस्तान में है, जैसा कि आप जानते हैं, वहां की सरकार कठपुतली बनी है, वही स्थिति कश्मीर में भारत के साथ है, क्योंकि वहां पर सरकार न तो हुर्रियत नेताओं पर और ना ही स्वयं वहां की राज्य सरकार पर नियंत्रण कर पा रही है, वहां की राज्य सरकार जो आतंकवाद से लड़ने का दावा तथा आतंकवादी घटनाओं की जिम्मेदारी पाकिस्तान द्वारा घुसपैठ बताती है, तो कभी उन्हें, सैनिकों द्वारा मारे जाने पर शहीद , जिससे यह तो स्पष्ट है, कि सरकार की दोहरी नीति, जिसे आम जनता नहीं समझ सकती है ।
वहां कुछ दिनों पहले स्थिति यह थी कि वहां सैनिकों को डेडा तथा प्रदर्शनकारियों को पत्थर पकड़ा कर सरकार एक अलग ही, मैच कराने के फिराक में है, जिसकी वजह से जितनी त्रस्त वहां की जनता है, उससे अधिक सैनिक लाचार नजर आते हैं । अपने साथी का सर फटने पर इलाज कराने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है ।
वहां के हालात ऐसे हैं, कि जनता किधर जाये, सरकार के साथ या वहां के हुर्रियत नेताओं के साथ जो इसे अलग दर्जे की माँग में लगे हुए हैं, जो मंचों से शाँति की माँग तो करते हैं मगर वहां के लोगों को सरकार के खिलाफ भड़काने एवं उन्हें गुमराह करने में भूमिका निभा रहे हैं । ऐसी स्थिति में वहां की जनता काफी परेशान एवं लाचार सी हो चुकी है, वो न चाहते हुए भी अपने लोगों पर पत्थर बरसाने पर मजबूर है । उनकी स्थिति “एक तरफ कुआँ एक तरफ खाई” की बनी हुई है ।
मौजूदा स्थिति की वजह कश्मीर को अलग दर्जे की मान्यता भी हो सकती है, क्योंकि कश्मीर अन्य राज्यों से अलग इसलिए है, कि वहां दूसरे राज्यों के लोगों को बसने की आजादी नहीं है, जैसा की बाकी अन्य राज्यों में, धरती जन्नत कहा जाने वाला कश्मीर आज पर्यटन स्थल तो दूर रोजगार के लिए भी सहज नहीं है, जिससे वहां की जनता दूसरे राज्यों की जनता से मुखातिब हो सके, तथा अपने विचारों का आदान प्रदान कर सके । अगर ऐसा संभव हो सके तो, स्थिति अपने आप धीरे-धीरे सही हो सकती है ।
अगर सरकार वास्तव में कश्मीर की तरफ से चिंतित है, तो वह सबसे पहले वहां के लोगों के बीच जाय और वहां की समस्याओं से वाकिफ हो, न कि हुर्रियत मीटिंग करे-  अगर सरकार अन्य राज्यों में संवेदनशील संगठनों पर बैन लगा सकती है, तो वहां क्यों नहीं, अगर हम असम, पंजाब एवं अन्य राज्यों से आतंकवाद खत्म कर सकते हैं, तो वहां क्यूँ नहीं-?
शायद सरकार अपना राजनीतिक समीकरण सही करने के लिए, वहां के हुर्रियत को खुश रखना चाहती है, जिससे उसे अन्य राज्यों में वहां के लोगों से सहानुभूति रखने वाले लोगों का वोट बैंक बढ़ सके ।
ऐसा नहीं कि इससे पहले किसी सरकार ने पहल न की हो, या किसी सत्तादल की सरकार या विपक्षी दल की पहले की सरकारों ने इस क्षेत्र में प्रयास न किया हो,- हाँ ऐसा अवश्य हो सकता है, कि उनके प्रयास सही एवं निष्पक्ष भले न हों-
क्योंकि सबसे पहले इसकी पहल स्व. लालबहादुर शास्त्री जी के द्वारा की गयी- परिणाम क्या हुआ - हमें तथा इस देश को, मिट्टी के लाल कहे जाने वाले जनप्रिय नेता को गवाँना पड़ा । ताशकंद समझौता आज भी पूरे देशवासियों के लिए अबूझ पहेली ही है, क्योंकि पहली बार ११ जनवरी १९६६ को भारत और पाकिस्तान के बीच मशहूर समझौते पर दस्तखत करने के बाद शास्त्री जी का देहांत हो गया । जिस पर उनकी पत्‍नी ललिता जी ने आरोप लगाया था कि उन्हें जहर दे दिया गया है । अभी भी उनके पुत्र सुनील शास्त्री उस हादसे से उबर नहीं पाये हैं ।
दूसरा समझौता जो कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला में सम्पन्‍न हुआ, जिसमें भारत की तरफ से इंदिरा गाँधी तथा पाकिस्तान के तरफ से जुल्फिकार अली भुट्टो शामिल थे । इस समझौते की जो सबसे खास बात रही वो कि दोनों देशों ने इस बड़े मुद्दे को बिना किसी अन्य देश की मध्यस्थता के ही पूरा कर लिया ।  शिमला समझौता भारतीय दृष्टिकोण से भारत का पाकिस्तान को समर्पण था, क्योंकि भारत की सेनाओं ने पाकिस्तान के जिन प्रदेशों पर अधिकार स्थापित किया था, उसे सहज ही छोड़ना पड़ा । इससे भारत को मात्र एक ही लाभ हुआ, जिससे भारतीय छवि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वच्छ बरकरार रहे ।
आज की स्थिति से अगर हम आजादी के समय की स्थिति से तुलना करें तो आप उसे बेहतर नहीं कह सकते हैं, क्योंकि- समझौते और शांति के प्रयास के साथ-साथ युद्ध की स्थिति भी बरकरार रही है । इतिहास पर नजर डालें तो विभाजन (1947) में हुआ और साथ-साथ तीन युद्ध (1947-48,1965, तथा 1971) हुए । इसके अतिरिक्‍त शिमला समझौता (1972), लाहौर-घोषणा-पत्र (1999) के साथ कारगिल युद्ध (1999)- असफल आगरा शिखर वार्ता (2001), इस्लामाबाद संयुक्‍त वक्‍तव्य (2004) भी शामिल हैं ।

इन सारे प्रयासों के बावजूद, सीमा पार से आतंकवाद जारी है, तथा युद्ध की स्थिति हमेशा बनी हुई है, जिसमें दोनों देशों के हुक्मरान तथा वहां के अलगाववादी विचारधारा के लोग आज भी एक दूसरे पर आरोप लगाने से बाज नहीं आते ।
चाहे शाँति बहाली की तरफदारी भारत की तरफ से हो या पाकिस्तान की तरफ से मगर निर्णायक मोड़ पर लाकर उसे युद्ध की स्थिति में तब्दील करने में दोनों की भूमिकायें संदेहास्पद अवश्य हैं, क्योंकि इन दोनों देशों के हुक्मरान ये फैसले अपने लाभ व हानि के लिए तय करते हैं, न कि वहां की जनता के लिए जिससे बगावत व व्यवधान उत्पन्‍न होना स्वाभाविक ही है ।

पहली बार सत्ता में गैर कांग्रेसी सरकार के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी ने, एक नयी सोच के साथ पाकिस्तान के साथ शाँति पहल के लिए लाहौर बस सेवा आरम्भ किया, जिसमें वे अपने शतरंज के बिछाए गये इस बिसात पर विफल रहे, क्योंकि कुछ ही दिनों बाद कारगिल जैसे युद्ध से भारत और पाकिस्तान के बीच बची-खुची मिठास भी कड़वाहट में तब्दील हो गयी । मगर वाजपेयी के इस सोच की पहल पाकिस्तान सरकार जो कि प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली में नहीं थी, उसके तरफगार मुशर्रफ साहब ने आगरा-शिखर वार्ता के रूप में की । मगर जब बात कश्मीर मुद्दे की आयी तो वे अपनी कड़वाहट छुपा नहीं सके, और वर्ता वहीं आगरा के रेस्टोरेन्ट के टेबल पर ही सिमट गयी । इस बड़ी घटना क्रम में भारत ने भी अपना पैर पीछे नहीं किया, जिसकी वजह से कश्मीर की घाटियों में सैनिकों की चौकसी और बढ़ा दी गयी ।

एक बार फिर वहां की जनता इन दोनों की खलबलाहटों की शिकार हुई । कभी पाकिस्तानियों ने घुसपैठ शुरू की तो इधर से भारत ने ब्लूचिस्तान तक अपना आक्रमण तेज रखा । मनमोहन सिंह के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल जो पाकिस्तान गया, जहां पर पाकिस्तान की जनता ने भी उसका जोरदार स्वागत किया, जिसके परिणाम स्वरूप दोनों देशों के बीच संबंधों में कड़वाहटें लोगों से निकलकर केवल हुक्मरानों के बीच ही बनी रहीं । मगर एक बार फिर अचानक मुशर्रफ की सरकार खतरे में आयी और वहां की सरकार बदल गयी, उसी दौरान बेनजीर भुट्टो की दुर्घटना से पाकिस्तान का अंदरूनी राजनीतिक समीकरण भी बदल गया । जहां पाकिस्तान वहां के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को न चुनकर, बेनजीर भुट्टो के सहानुभूति के चलते उनके पार्टी को सत्ता में वापस लायी तो लगा कि कश्मीर समस्या एक नये सिरे से शुरू होकर शांतिपूर्ण रूप से इसका समाधान निकल जायेगा, परन्तु समय के साथ, जरदारी का भी तेवर सातवें आसमान पर आ गया और जब इसकी पहल के लिए हाल ही में वहां के विदेशमंत्री बुशुरी भारत दौरे पर आये तो वो भी वही राग अलापने लगे ।
जहां तक कश्मीर समस्या का प्रश्न है, वो मात्र एक बहाना है भारत और पाकिस्तान का विभाजन, जिसकी वजह से लोग भारत और पाकिस्तान विभाजन का एक दूसरे से बदला लेना चाहते हैं और जब जिसको मौका मिलता है, वो कश्मीर मुद्दे को उछालकर युद्ध का राजनीतिक माहौल बना देता है ।

क्योंकि किसी भी देश की जनता जो आज के समय में दो वक्‍त की रोटी के जुगाड़ में लगी है, जो अपने आप को व्यस्त रखना चाहती हैं वो कभी भी किसी चीज के लिए युद्ध के लिए तैयार नहीं हो सकती, क्योंकि सरहदों पर लकीरें जो इंसान बनाना चाहता है, वह यह अवश्य भूल जाता है, कि सरहदें हमेशा-हमेशा के लिए नहीं होतीं, वो कभी-भी बनायी और बिगाड़ी जा सकती है । क्योंकि कभी बाबर ने भी यह सपना नहीं देखा होगा जो उसने अपनी सरहदें निर्धारित कीं वो बरकरार नहीं रह पायेंगी ।

खैर इतिहास जो भी हो, हमें अपने भविष्य के लिए, इस वर्तमान में कुछ कठोर निर्णय अवश्य लेने पड़ेंगे । जिससे देश के इस अभिन्‍न भाग में शांति बरकरार हो सके ।
सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, उसे एक आम सहमति बनाकर, जो आग कश्मीर में धधक रही है, उसे निष्पक्ष होकर बुझाना होगा, क्योंकि एक बार की मौत अच्छी होती है, उसके बजाय जो किश्तों में मिले ।
अर्थात सरकार को अपने अभिन्‍न अंग में सामान्य राज्यों की तरह से व्यवस्था शुरू कर, इस समस्या से निजात अवश्य पाना होगा नहीं तो- संसद पर हमला, ताज पर हमला, और इस तरह के न जाने कितने हमले अवश्य देखने को मिलते रहेंगे । और कश्मीर धरती की जन्‍नत न होकर कुरूक्षेत्र अवश्य बन जायेगा, जिसमें इंसान रोज ब रोज दफन होता रहेगा और इंसानियत का संदेश, शांति का प्रतीक कहा जाने वाला भारत अपने आपको कभी भी माफ नहीं कर सकेगा, क्योंकि कहावत है-
               “ बिना बलिदान के इतिहास नहीं लिखे जाते
                  ना ही, उसका कोई महत्व होता है । ”


                                                                     जय हिंद
                                                                    मुकेश पाण्डेय 

Tuesday, June 29, 2010

विकास की राजनीति में फँसा बिहार

जाने क्या होगा वाद और विवाद में फँसे बिहार का? जहाँ एक तरफ बिहार की जनता एक अरसे के बाद कुछ चंद साल मौजूदा सरकार के शासन काल में चैन की साँसें ले रही थी कि अचानक आगामी चुनाव से पहले गठबंधन सरकार में पड़ती दरारों की वजह से वहाँ के लोगों में भी काफी असमंजस की स्थिति बनी हुई है ।

आज बिहार की स्थिति जहाँ सदृढ़ हो रही है, और विकास पुरूष के रूप में नितीश कुमार ने बिहार को एक अच्छी स्थिति में ला खड़ा किया है, वह काफी सराहनीय एवं असाधारण है, लेकिन आखिरकार आगामी चुनाव के पहले एक नये विवाद की वजह से बिहार की जनता में भी काफी असमंजस की स्थिति बनी हुई है । जहाँ एक तरफ स्वयं नीतिश कुमार ने बिहार में धर्म-जाति से ऊपर उठकर लोगों को विश्‍वास जताया है, वहीं चुनाव से पहले स्वयं नीतिश कुमार को भी राजद, कांग्रेस व लोजपा की तरह मुस्लिम तुष्टिकरण रास आ रहा है, तभी तो उन्हें नरेन्द्र मोदी व वरूण गाँधी द्वारा चुनावी रैली में हिस्सा लेने से ऐतराज है ।

स्वयं नीतिश कुमार बिहार में हुए चहुमुखी विकास के दावे के बल पर चुनाव लड़ना चाहते थे, वहीं अचानक उनका रुख कैसे बदल गया? सोचने वाली बात है, जिस गठबंधन के सहारे उन्होंने बिहार को सुशासन प्रदान किया है, वो आज अचानक चिंता का विषय कैसे बन गया?

कहीं ऐसा तो नहीं कि यह उन्हें कांग्रेस द्वारा दिये गये प्रलोभन व वाहवाही के नतीजे हैं या कहीं ऐसा तो नहीं कि उनकी नजर 16% मुस्लिम वोट बैंक पर है? या कहीं ऐसा तो नहीं कि उन पर भाजपा का अतिरिक्‍त दबाव या अंकुश हो, जो उनकी छवि को धूमिल कर रहा हो ।

इसमें कहीं न कहीं आपसी तालमेल की कमी कहें या जनता जनार्दन को मूर्ख बनाने वाली बात, साफ नजर आ रही है । अगर ऐसा नहीं है, तो नरेन्द्र मोदी के खिलाफ खोले गये मोर्चे की वजह की गुत्थी सुलझाना आसान नहीं होगा, क्योंकि जिस नरेन्द्र मोदी के बारे में वो बता रहे हैं, उस नरेन्द्र मोदी के बारे में बिहार क्या पूरे भारत की जनता की एक ही राय है, एक ही छवि है, और वो है विकास पुरूष की- क्योंकि स्वयं सदी के महानायक से लेकर वो सारे विकसित देश जिन पर हमारे देश की अर्थव्यवस्था टिकी हुई है, उनके कार्य करने के तरीके के लिए सराहना करते हैं । तो इससे एक बात तो अवश्य स्पष्ट हो जाती है, और वो है, “विकास पुरूष की होड़” जिससे भारत के इन मुख्यमंत्रियों में किसे विकास पुरूष के दर्जे का पैटेन्ट मिले ।

नितीश कुमार और भाजपा गठबंधन में पड़ती दरारों की वजह दूसरे ही तरफ इशारा कर रहा है, और वो है, सरकार द्वारा चुप्पी साध कर कराये गये चुनाव सर्वेक्षण जिसके तहत अगर JDU अगर अकेले चुनाव लड़े तो उसे 243 में से 120 सीटें हासिल हो सकती हैं । जो कि महज दो सीट ही बहुमत के लिए कम है, जिससे उसको 40 सीटों का फ़ायदा हो सकता है, जबकि अगर वह भाजपा गठबंधन के साथ लड़ती है, तो उसका फ़ायदा कम हो जायेगा । अगर दोनों गठबंधन में लड़ते हैं, तो BJP को 54 से 60 सीटों का तथा JDU को केवल 81-95 सीटों का फ़ायदा होता है, जो काफी कम है । JDU के फ़ायदे की वजह 16% मुस्लिम कोट बैंक है ।

अगर हम बिहार के विकास की बात करें तो इसमें कोई दो राय नहीं की संतोषजनक विकास हुआ है । जहाँ स्वयं नीतिश कुमार चहुमुखी विकास का दावा कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ बिहार का भविष्य एक नये अंधकार की ओर अवश्य ले जा रहे है । अगर बिहार की मौजूदा स्थिति के बारे में बात करे तो सड़कों की मरमत्तीकरण से लेकर हर गाँवों में विद्युतीकरण का कार्य प्रगतिशील है, मगर चिकित्सा व्यवस्था और मेडिकल कालेजों में व्यवस्था जर्जर स्थिति में ही है ।

शिक्षा प्रणाली के विकास पर नजर डालें तो इसका हाल कुछ और ही दर्शाता है, केवल प्राथमिक शिक्षा में सुधार करने की कोशिश राजनीतिक तरीके से हुई हैं, क्योंकि वहां शिक्षामित्र जो पंचायत के प्रतिनिधियों द्वारा नियुक्‍त किये गये हैं, वे आयोग्य ही नहीं बल्कि प्रतिनिधियों से लेकर मंत्रियों के जेब खर्चे का परिणाम हैं । जिन्हें सिलेबस तक की जानकारी नहीं है, आंगनबाड़ी योजना के तहत एवं प्रधानमंत्री द्वारा दोपहर के भोजन की राजनीति की वजह से स्कूलों में शिक्षा नाम के शब्द को हटाकर खिचड़ी को तवज्जो दिया जा रहा है, जहां बच्चे शिक्षा नहीं राशन ग्रहण करने जा रहे हैं । जहां सरकार इसे कुछ लोगों को रोजगार देने का विश्‍वास दिला रही है, वहीं हजारों, लाखों बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ भी कर रही है, इसे हम क्या समझें विकास या और कुछ?

आज की तारीख में जहां सरकार लगभग कार्यकल पूरा करने जा रही है, वही उच्च शिक्षण संस्थानों में कोई सुधार नहीं हुआ है? ना ही माध्यमिक शिक्षा, ना ही उच्चमाध्यमिक तथा ना ही स्नातक और स्नातकोत्तर के संस्थानों में इजाफा, बल्कि इजाफा तो दूर उसके हालात और जर्जर होते जा रहे हैं, जिसके फलस्वरूप वहां के लोगों को आज की तारीख में भी अन्य राज्यों पर निर्भर रहना पड़ रहा है ।
रोजगार के विकास के बारे में बात करें तो वहां के लोगों को न तो कोई आश्‍वासन ही मिला है, न ही वहां कोई औद्यौगिक विकास ही हुआ है, जिसके लिए उन्हें, कभी शिवसेना से मार खानी पड़ती है, तो कभी असम में रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षा में असमियों द्वारा प्रताड़ना भी सहनी पड़ती है, जवाब में सरकार कभी शिवसेना को तो कभी असम सरकार को जिम्मेदार ठहराती है ।

आज की तारीख में भी बिहार की जनता बिहार से अधिक अन्य राज्यों में रोजगार तलाशती है, जिसका उदाहरण है, बिहार से भारत के किसी भी कोने में जाने वाली ट्रेनों में बिहारियों की भीड़ । जिस विकास की दर का दावा यहां की सरकार कर रही है, वह केवल दस्तावेजों में ग्राफों तक ही, तथा मंत्रियों के लाइफस्टाइल पर ही झलक रही है, न की आज जनता को नये रोजगार मिल रहे हैं ।

हाँ, वहां प्रशासन अवश्य चुस्त-दुरूस्त हुआ है, एक संतोषजनक बात है कि अब वहां बाहुबली या तो जेल में हैं, या तो सरकार में मिल गये हैं, जिस गुंडा राज से बिहार की जनता त्रस्त थी वो अवश्य कम हुआ है, मगर नौकरशाह अवश्य जनता का शोषण कर रहे हैं, एक सामान्य कार्य के लिए भी थानाध्यक्ष से लेकर बड़े आला अफ़सर मुहमाँगी रकम माँगते हैं, जो कि ‘गुण्डाराज से कम भयावह नहीं है ।’
पूरे प्रदेश में सरकार के एक नये गठन के रूप में ’सैप’ अतिरिक्‍त पुलिस बल ने लोगों को राहत अवश्य पहुँचायी है, जिसका लगभग 70 फ़ीसदी खर्च केन्द्र सरकार वहन करती है और मात्र 30 फ़ीसदी खर्च राज्य सरकार वहन करती है । कुल मिला-जुला कर यह काफी सराहनीय है, क्योंकि जनता चैन से रात को सो अवश्य लेती है ।
अन्ततोगत्वा हम सरकार की कार्य प्रणाली पर अंगुली तो नहीं उठा सकते क्योंकि यहां की स्थिति इतनी बदत्तर हो चुकी थी कि जिसे सही करने में समय तो अवश्य लगेगा, लेकिन हम इसे संपूर्ण विकास, चहुमुखी विकास भी तो नहीं कह सकते । रह गई विकास की राजनीति की बात तो सरकार को ऐसे कदम अवश्य उठाने चाहिए जिससे आने वाली कोई भी सरकार चाहे वो किसी भी पार्टी की हो, उसका अनुसरण अवश्य करे न की उसको राजनीतिक फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करे ।

क्योंकि जनता को क्या चाहिए शिक्षा, रोजगार, व्यवसाय करने की सुविधा इत्यादि, जिसे जनता सहज ग्रहण कर सके, तभी हो सकता है ’चहुमुखी विकास’ ।

और चहुमुखी विकास के लिए चाहिए कि नितीश कुमार की छवि जो लोगों ने देखी थी वे उसे बरकरार रखें, विकास को राजनीतिक हवा या धर्म और जाति के एजेंडे से न जोड़े, उसे अन्य पार्टियों के लिए छोड़ दें । मगर वे स्वयं और उनके चहेते गठबंधन तथा स्वयं अपने लोगों में दरार की वजह न बनें, वो किसी भी अन्य सरकार, नेता पर बयानबाजी न करें, जिससे उनकी छवि को नुकसान पहुंचे ।

Sunday, May 9, 2010

नक्सलवाद समस्या या विकल्प

हाल के दिनों में पूरे देश को ही नहीं बल्कि पूरे जनमानस को झकझोर देने वाली घटना घटित हुई जिसमें 100 से अधिक जाने गयीं, जिससे पूरा देश शर्मसार हुआ । यह अलग बात है, कि यह पहली बार नहीं हुआ, और ना ही पहली बार शहीदों की तिलांजलि के बाद हम उन्हें भूलने कि कोशिश किए । आज हमारा देश जो कभी पड़ोसी मुल्कों से तो कभी अपने ही लोगों के द्वारा बार-बार ऐसी घटनाओं का शिकार होता जा रहा है, और हम इसे सहज ही स्वीकार करते जा रहे हैं और हमारी मीडिया भी इस मामले में कम नही है, क्योंकि कभी नक्सली मारे जाते हैं तो ग्रीनहंट तथा , कभी जवान मारे जाते हैं तो इसे सूचना की कमी और असंतोष का कारण सिद्ध करने में लग जाते हैं । खैर वजह जो भी हो हम और हमारी सरकार इसे केन्द्र और राज्य सरकार के बीच सही तालमेल नहीं होने की वजह बताकर अपनी जिम्मेदारियों से छुटकारा पा लेते हैं । अगर ऐसा नहीं होता तो ये दंतेवाड़ा की घटना की पुनरावृत्ति नहीं होती और ना ही इतनी भारी संख्या में जवान शहीद होते ।

वास्तव में अगर देखा जाय कि नक्सलवाद क्या है? और इसका विकल्प क्या है? तो हर व्यक्‍ति इसका उत्तर शायद एक ही दे वो ये कि, यह असंतोष का बिगड़ा एक ऐसा स्वरूप है, जो उन लोगों के द्वारा चलाया जा रहा है, जिससे उनका कोई लेना देना ही नहीं है । अगर इसके इतिहास पर प्रकाश डालें तो -
" नक्सलवाद कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है, जो भारतीय कम्यूनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्‍न हुआ । नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्‍चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलवाड़ी से हुयी है, जहां भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 में सत्ता के खिलाफ एक सशक्‍त आंदोलन की शुरूआत की थी । मजूमदार कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे, और उनका मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं, जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तब का कृपितंत्र पर दबदबा हो गया है । जिसे सिर्फ सशक्‍त क्रांति से ही खत्म किया जा सकता है ।"

1967 में “नक्सलवादियों ने कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई, जो कम्यूनिस्ट पार्टी से अलग हो गये, और सरकार के खिलाफ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी । 1971 में आंतरिक विद्रोह हो गया । मजूमदार की मृत्यु के पश्‍चात्‌ इस आंदोलन की बहुत सी शाखायें बन गईं जो आपस में प्रतिद्वंदिता भी करने लगीं ।

आज कई राजनीतिक पार्टियां जो वैधानिक रूप से स्वीकृत हैं, उनकी पृष्ठ भूमि नक्सली संगठन के रूप में ही रहा है । और वे संसदीय चुनावों में भाग भी लेती है, लेकिन बहुत से संगठन अब भी मजूमदार के सपने को साकार करने में लगे हुए हो । नक्सलवाद की सबसे बड़ी मार आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को झेलनी पड़ रही है । आज हमारा देश जो अपने आपको हर दिशा में हर क्षेत्र में समर्थवान समझ रहा है, क्या वह इन छोटी समस्याओं से निजात पाने में सक्षम नहीं है, अगर ऐसा नहीं है, तो हर 15 अगस्त और 26 जनवरी के पूर्व संध्या पर यहां के प्रतिनिधियों द्वारा दिये गये संवाद झूठे और ढकोसले के अलावा कुछ नहीं है । अगर उनके वक्‍तव्य वास्तव में दस्तावेजों के द्वारा सही रूप से आकलित हैं, तो इसका अर्थ है, कि सरकार और उनके सहयोगी इसे खत्म नहीं करना चाहते हैं , और उसे राजनीतिक हवा देना तथा उसके बाद चुनावी मुद्दे में तब्दील करना चाहते हैं ।

आजकल तो एक अलग तरह की संस्था का उदय ही हो गया है, जिसका नाम है- ‘मानवाधिकार संस्थान’ जिसकी पारदर्शिता पर संदेह करना उचित है, क्योंकि ये वही मुद्दे उठाते हैं, उनकी ही फरियाद करते हैं, जो समाज के शत्रु हैं, देश के शत्रु हैं । इनको देश व समाज से कोई लेना देना नहीं, क्योंकि (भाई) ये तो मानव रक्षा की बात करते हैं, मगर ये हमेशा यह भूल जाते हैं, कि देश पर शहीद होने वाले जवान चाहे वह सेना का हो, सीआरपीएफ का हो या पुलिस के जवान ही क्यों न हो उनके लिए , मानव नहीं है , उसके लिए न कोई समाज सेवी ही आगे आता हो ना ही मानवाधिकार वाले ही आगे आते हैं । इनके शब्दकोषो में न तो जवानों का कोई परिवार होता है, ना ही उन पर कोई आश्रित ही होता है । हां मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि नक्सली आतंकवादियों के मानवाधिकार तो मानवाधिकार है, लेकिन रोज वास्दी सुरंगों के विस्फोटों से मारे जा रहे, जवान और हजारों निरीह जनता के मरने पर उनके अधिकारों के बात करने वाले पत्रकारों को क्या साँप सूंघ जाता है?

मेरे लिखने का मकसद सिर्फ यह है, कि नक्सलवाद आज हमारे सामने एक ऐसी समस्या है, एक ऐसी चुनौती है, जिसके विरोध में हमें एकजुट होकर इसे समाप्त करना ही होगा । यही समाज के लिए भी कल्याणकारी है, तथा देश के लिए भी । अगर आप लोगों में किसी को यह लगे कि हम किसी समस्या का समाधान बेगुनाहों की जानें लेकर कर सकते हैं, समाज को तोड़कर या देश को तोड़कर कर सकते हैं, तो ऐसा संभव नहीं है । इसके फलस्वरूप कहीं ऐसा न हो कि एक असंतोष को समाप्त करने के लिए हम हजारों असंतोष को जन्म दे दें ।

जय हिंद

Friday, March 12, 2010

नेता बनाम राजनेता

नेता बनाम राजनेता जैसा कि आप सब परिचित होंगे इन शब्दों से, और उन लोगों से भी जो ये होने का दावा करते है, तथा जो होगे भी, और थे भी । ये शब्द न तो किसी कवि की कल्पना है, न ही किसी लेखक का काल्पनिक पात्र ही है, ये वो शब्द है, जिनकी वजह से हमारे वजूद बने, बिगड़े और बार-बार किसी न किसी घटना एवं दुर्घटना के संयोयक रहे है । जिस प्रकार किसी विद्यालय मे अध्यापक का उत्तरदायित्व उस विद्यालय के छात्रों के प्रति होता है, किसी परिवार के मुखिया का उसके पूरे परिवार के प्रति होता है, वैसे ही नेता उत्तरदायी होता है, उस समाज का, उस देश का ।
कहने सुनने मे तो बहुत ही कम अन्तर लगे शायद नेता व राजनेता में परन्तु दोनो एक दूसरे से काफी भिन्‍न है । जब हमारा देश गुलाम था तब नेता हुआ करते थे । चाहे, वो गाँधी हो, सुभाष हो या लाला जी हो । ऐसा नही की तब राजनेता नही थे, या आज नेता नही है, या हुए नही । जब नेता में सत्ता लौलुप्ता, लालच, बेईमानी, जैसे गुण जुड़ जाते है । तो वही बन जाता है, राजनेता ।
मैंने इन सारी बातों पर प्रकाश डालने का प्रयास नही किया कि , आप इन सब चीजों से परिचित नही होंगे, अपितु ये सारी चीजे ही इनमें अन्तर स्पष्ट करती है । आज हमारा देश जो विश्‍व का सबसे बड़ा एक प्रजातांत्रिक देश है, जहां इतनी जनसंख्या के बावजूद, इतने भेदभाव के बावजूद व्यवस्थित या अव्यवस्थित रुप से दिन व दिन प्रगति की ओर अग्रसर है ।

वास्तव में अगर देखा जाय तो देश की बागडोर जिन हाथों में है, तथा अधिक दिनो तक रही है, वह कहीं न कहीं प्रजातांत्रिक होने के दावे को शत प्रतिशत सही नही ठहराता है । कांग्रेस जो आज सत्ता मे हैं, तथा आजादी से अब तक सबसे अधिक दिनो तक राज्य किया है, उससे राजतंत्र की परिछाई साफ नजर आती है । और इसे हम तो क्या स्वंय कांग्रेस के राजघराने के सदस्य भी स्वीकार करते है । कांग्रेस जो आजादी से लेकर आज तक देश में शासन कर रही है, उसमें नेताओं की कमी और राजनेताओं की अधिकता स्पष्ट रूप से सामने आ रही है ।
आज जो कांग्रेस के युवराज जो आम जनता मे एक नेता की छवि बना रहे है वो अवश्य सराहनीय है, परन्तु कांग्रेस उन्हें, नेता नही राजनेता बनाना चाहती है, शायद उनकी भी दिलचस्पी यही हो सकती है । क्योंकि कांग्रेस का इतिहास रहा है, कि जो नेता आम लोगो में अपनी पहचान एक सच्चे राष्ट्रभक्‍त एवं जनता की सेवा के लिए बल पर बनाता है, उसे या तो निलंबित किया गया है, या वो घटना एवं दुर्घटना का शिकार अवश्य हुआ है । इसमे कांग्रेस की मर्जी रही हो या नही आप अवश्य समझ सकते है ।
सबसे पहला उदाहरण है, जब देश गुलाम था । तो नेता जी सुभाष चन्द बोस को राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया, परन्तु दुर्भाग्यवश उनकी लोकप्रियता की वजह से या कार्यकुशलता की वजह से या फिर राजगद्दी की लालच के लिये उन्हे हटाकर जवाहर लाल नेहरू को देश का राजनेता नियुक्‍त किया गया ।ऐसे कई उदाहरण आप स्वंय पा सकते है, चाहे वो संजय गाँधी का विमान दुर्घटना हो या राजेश पायलट या आखिरकार वाई० एस० आर० रेड्डी का दुर्घटना ही क्यों नही- ये सारी घटनाए एवं दुर्घटनाए सिर्फ और सिर्फ नेता बने रहने या देश उत्थान मे अपने योगदान के जिद्द की वजह हो सकती है ।
मेरा संदेहास्पद टिप्पणी करने का अर्थ यह नही कि मैं अपने ही विचारो से सहमत नही हूँ या फिर यह एक कोरी कल्पना है । मेरे अंदर केवल एक भय है, वो है कि मैं चाहते हुए या न चाहते हुए नेता न बन जाऊ, जिससे मैं या (आप) ऐसी घटना का शिकार हो जाये । मेरी इस टिप्पणी से आपलोगों को ये लगे शायद कि मै नेता बनाम राजनेता को छोड़ किसी पार्टी विशेष पर यह आरोप लगा रहा हूँ , और किसी अन्य नेता या पार्टी का जिक्र नही कर रहा हूँ, तो ऐसा नही है । आज के परिदृश्य मे कोई भी पार्टी, कोई भी नेता, राजनेता बनने की होड़ से पीछे नही है, चाहे वो भाजपा के पार्टी सुप्रीमो आडवाणी ही क्यों न हो । जिन्होंने बड़े ही आसानी से यहां के लोगों पर धर्मवाद के पक्षधर बनकर यहां की जनता के दिलो पर राज्य करना चाहा, परन्तु अन्ततः सत्ता का मोह ने उन्हें तथा स्वयं पार्टी का भी काफी नुकसान किया । क्योंकि आप कितना भी दिखावा कर ले कितने भी अपने दिखावेपन को असलियत में तब्दील करने की कोशिश कर ले सच्चाई अन्ततः सामने तो आ ही जाती है ।
वरना पूरा हिंदुस्तान जहां एक बदलाव के रूप में उन राजनेताओं से मुक्‍ति के लिए इन्हें सत्ता का भार सौपा, तो इनको लगा कि अब तो ये हमारी पुस्तैनी हो चुकी है, हम भी वैसे ही जनता को मूर्ख बनायेंगे जैसे अन्य करते आये है । इन्हे शायद यह नही लगा था कि जो जनता आपको सिर्फ एक मंदिर के मुद्दे पर सत्ता में वापस ला सकती है, वही जनता सारे मुद्दे होने के बाद चाहे वह महंगाई का हो, आतंकवाद का हो, भ्रष्टाचार का ही क्यों न हो आपको मौका भी नही दे सकती । इस पार्टी के नेता भी इसी बिमारी से पीड़ित हो चुके है, जो राजनेता बनने का स्वप्न है, उन्हें, उनके उत्तरदायित्वों से दूर करता जा रहा है । और अन्य पार्टियां, तो कहिए मत ये भी अपने को कम नही आकते है । चाहे लालू यादव का अपनी ही पत्‍नी को सत्ता मे बनाये रखना हो या मुलायम सिंह का पुत्र मोह और प्रिय मित्र अमर सिंह का अलग होना ।
ये सारी घटनाये सिर्फ राजनेता बनने की चाहत के नतीजे है । जिसे भुगतना आम आदमी को पड़ता है, और मूल्य चुकाना पड़ता है इस देश को-
क्योंकि ये सारे राजनेता, मर्यादाहीन, अतिउत्तेजक एवं विवेकहीन है, जिन्हें स्वयं अपनी मर्यादा तक ख्याल तक नही, वो क्यों किसी देश व समाज का उत्थान करेंगे -
हमें सोचना होगा इन राजनेताओं के बारे में, नही तो हम जीवन भर अपने-आप को कशूरवार ठहराते रह जायेंगे ।
जय हिन्द !

Tuesday, March 9, 2010

WOMEN RESERVATION

Through women reservation only politician are satisfied not all citizens of our country . I think this is starting of India's ruined.
Its starting a partiality among gender after community,religion and cast.
I condemn all politicians those were in fever of this bill .they only shows what they want to disturb a our society and country and making only vote bank.bcz mostly guys are foolish and selfish right now.Which can raise big problem for country development and ,it can go as interim war in country like naxals and so on.I think government organize terrorism and may involve in such activity . They do not pass bill against rising inflation,terrorism,disaster,corruptions etc.But they definitely pass bill for reservation of minority,OBC,SC/ST and for women.

Finally I argue to all responsible persons those have mercy over country ,they condemn this.

Jai Hind.

Friday, January 1, 2010

अंत भला तो सब भला



कहावत है, अंत भला तो सब भला, ऐसा लिखने के लिए मैंने इसलिये सोचा क्योंकि २००९ की अंतिम शाम है, आज 31 दिसम्बर हैं, और यह इसलिए मैने सोचा कि----
इस साल में हजारों उतार-चढ़ाव देखने को मिले अंतत: हम इसे सुखद कह सकते हैं ।
माना कि २००९ में ही मंदी का असर पूरे विश्‍व में छाया रहा, लेकिन अंततः यह साल के आखिर में छंटा तो सही-
२००९ में ही तो भारत खेल की दुनिया में रिकॉर्ड ऑफ बुक में छाया रहा । विशेषकर क्रिकेट इतिहास का यादगार साल तो रहा सचिन तेंदुलकर ने जहाँ नये-नये कीर्तिमान स्थापित किये वहीं, सहवाग का कैरियर जो डाउन हो रहा था, एक नई ऊँचाई को छू गया और अंततः अंग्रेज खिलाड़ी को दशक का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी घोषित किया ।
यह अलग ही बात है कि अन्य क्षेत्रों में हम उतनी तरक्‍की नहीं कर सके- सुरक्षा के दृष्टिकोण से कभी पाकिस्तान की तरफ से खतरा मंडराया तो कभी, समय-समय पर चीन ने अंदर घुसने का प्रयास भी किया । कहीं-कहीं घुसपैठ तो हुआ लेकिन बड़ा आतंकवादी हमला नहीं हो सका, जो यह पुष्टि करता है कि चिंदबरम साहब ने हिसाब-किताब के अलावा आंतरिक सुरक्षा भी दुरूस्त रखी-
राजनीतिक क्षेत्र में भी अपने देश का परचम रहा । स्वयं प्रधानमंत्री व्हाइट हाउस के चीफ गेस्ट रहे । भले ही हम कोपेनहेगन वार्ता में उन्हीं लोगों के द्वारा आलोचना के शिकार हुए । मौजूदा सरकार ने पूरे देश में अपना वोट बैंक बढ़ाया तो भाजपा का सूरज निस्तेज जान पड़ा । लौह पुरूष कहलाने वाले आडवाणी के लिये यह वर्ष कष्टदायी रहा वहीं, एक नये चेहरे के रूप में गडकरी ने नया जीवन देने का प्रण लिया । महाराष्ट्र में बाबा साहब को नकारकर लोगों ने राज की कमान को स्वीकारा ।
मायावती पूरे साल अपने कारनामों की वजह से तो कभी अपने नेतृत्व की वजह से विश्‍व में शक्‍तिशाली महिला के रूप में सोनिया की सूची में स्थापित हुईं । यह अलग ही बात है, कि अपने ही देश में लोगों ने और स्वयं न्यायपालिका ने उन्हें लताड़ा ।
सोनिया गाँधी विश्‍व में शक्‍तिशाली महिला की सूची में शीर्ष पर रहीं तो, राहुल गाँधी के काम करने के तरीके और विचारों की वजह से युवाओं ने उन्हें अपना रोल मॉडल बनाया ।
पूरा साल फिल्म जगत के लिए कारोबार के हिसाब से खराब तो रहा लेकिन सदी के सर्वश्रेष्ठ महानायक ने एक बार फिर अपने दर्शकों और चहेतों के लिए ओरो बनकर लोगों को चौंकाया, वहीं इडियट से ही सही कारोबार में तेजी और आमिर खान को इडियट बनना और कहलाना भी पसंद आया, यह अलग बात है कि अब बच्चे भगत सिंह नहीं बल्कि इडियट बनना अधिक पसंद करेंगे । इसी साल ने हमें 4 ऑस्कर दिलवाये, जो अपने आप में गौरव की बात है ।
इसी साल ही तो गे. लेस्बीयन को साथ रहने का अधिकार मिला है । जो कम से कम यह दर्शाता तो है, कि हम अब पश्‍चिमी देशों से इस मामले में तो पीछे नही हैं । भले ही कोई नया अनुसंधान नहीं कर सके तो क्या हुआ हमें लडाकू विमान मिसाइलें भले ही बाहर से खरीदने पड़े तो क्या हुआ हमें प्यार करने के लिए केवल विपरीत सेक्स पर तो निर्भर नहीं रहना पड़ेगा ।

और अन्त में सिर्फ मैं आप सबसे यही उम्मीद करता हूँ कि आप लोग भी “बीती बिसारि के आगे की सुधि लेई”का अनुसरण कर अपने देश व समाज को एक नया उपहार देंगे ।

"आओ हम सब यह शपथ लें आज से
न कोई द्वेष रहे अपने आप से ।

मरकर भी देश की रक्षा करेंगे हम,
इस साल में सबसे आगे होंगे हम ।

वीर भगत वन जायेंगे, देश की खातिर,
भले ही कुर्बान होंगे हम ।

देश की शान बढ़ायेंगे हम,
दुनिया में अपना परचम लहरायेंगे हम ।"
- जय हिंद
मुकेश कुमार पाण्डे