Friday, November 27, 2009

देश का दुर्भाग्य (26/11)




शायद किसी ने यह उम्मीद न किया हो कि एक तरफ हमारा देश प्रगति कर रहा है, नई ऊँचाईयों को छू रहा हैं । वही दूसरी तरफ एक निहायत ही कमजोर एवं लाचार होता जा रहा है, और हम इसके रखवाले, दिन व दिन अपंग होते जा रहे है । अगर ऐसा नही होता तो हर साल, हर महीने हम ऐसी घटनाओं के शिकार नहीं होते आज २६/११ के वर्षगांठ पर पूरा देश भावमीनी श्रद्धांजली दे रहा है । तो कोई उन शहीदों को पुष्पमाल्यार्पण कर रहा है । मैं पूछता हूँ कि क्या यह भावभीनी श्रद्धांजली, और उनकी याद में २ मिनट का मौन काफी है । उनके लिये या इस देश के लिए जिसका हदय बार-बार विद्रोहियों के द्वारा ब्यथित हो रहा हो । यह देश का दुर्भाग्य नही तो क्या है, यहाँ के रहने वालों के लिए शर्म की बात नहीं तो क्या है? यह एक ऐसा कलंक है जो मिटाये नही मिटने वाला है ।

कुछ लोगों को श्रद्धांजली फिल्म बनाने से है, वो सोचते हैं कि हम फिल्मों के माध्यम से, रेडियों के माध्यम से यहाँ के लोगों को बदलेंगे, उनके सोच को बदलेंगे, लेकिन ऐसा होना, एक ऐसे स्वप्न की तरह है, जो शायद ही पूरा हो सके । क्योंकि बदलती तो वो चीजे हैं, जिसमें चेतना हो परन्तु दुर्भाग्यवश सारे चेत होते भी अचेत है । हम इसे ऐसे याद कर रहे, ऐसे प्रस्तुत कर रहे हैं, जैसे बहुत ही गर्व की बात हो । वो हमें बार-बार कभी २६/११ का तो कभी १९९३ बम-ब्लास्ट, तो कभी काशी संकटमोचन के रूप में चुनौती दे जाते है, और हम उसे राजनीतिक फायदे मे तब्दील करते जा रहे है । इसे हम क्या कहेंगे ।
कहावत है, कि अपने घर में कुत्ता भी शेर होता है, लेकिन हम अपने को कहते शेर है, और हालत कुत्ते से बदत्तर है । कोई भी घटना होती है, चाहे वह रेल दुघर्टना हो, बस दुर्घटना हो, या बहुत बड़ी शाजिश के तहत देश पर हमला ही क्यों न हो, हम उसे दूसरे देश के द्वारा साजिश का नाम दे, अपना पिछा छुड़ा लेते है । हम किसी व्यक्‍ति या देश के खिलाफ पुख्ता सबूत होने के बावजूद कार्यवाही क्यों नहीं करते । क्यों दूसरे देशों के भरोसे रह जाते हैं । शायद इसलिये की हमारे पास धन नहीं है, शायद इसलिए की हमारे पास सैन्य बल का अभाव, और शायद इसलिए कि हमारे पास तकनीकी की कमी है । .... नहीं है, तो है, सिर्फ और सिर्फ सत्ता लौलुपता की और आत्मविश्‍वास की - अगर ऐसा नहीं होता तो, संसद भवन हमले के बाद यह २६/११ नहीं होता, और कदापि नही होता- इन सारी घटनाओ से हम सिर्फ अपने-आप को निकम्मे, कमजोर और लालची, बेईमान, मतलबी, साबित कर सकते है । हमारे लिए ऐसी घटनाये कोई माइने नहीं रखती इसे सिद्ध करने की किसी को जरूरत नही है, क्योंकि वे खुद ही गवाह है, अपने गुनाहों की-
मैं पूछना चाहता हूँ, हर उस आदमी से जो थोड़ा भी अपने आप को वफादार या देश और समाज के प्रति जिम्मेदार समझता हो । अगर कोई आपके परिवार या आप पर जानलेवा हमला करता है, तो..
क्या वह दूसरे से या पड़ोसी से सहायता लेने के बाद अपनी रक्षा करेगा ?
क्या वह पहले पंचायत बुलायेगा और फिर वह निर्णय लेगा कि उसे क्या करना चाहिये?-


मेरा मानना है, कि नही कोई भी कानून कोई भी धर्म उसे अपनी रक्षा एवं परिवार की रक्षा करने की स्वीकृति अवश्य देगा-

मेरे लिखने का मकसद किसी को श्रद्धांसुमन अर्पित करना नहीं है, किसी देशभक्‍त को जो हमारी रक्षा के लिए अपने आप को नष्ट कर दिया उसके लिये उसकी श्रद्धांजली में उसे याद करना और फिर उसको राजनीतिक हवा देना नही है ।
“हमारा मकसद है, कि आप, हम सभी दृढ़ प्रतिज्ञ हो उनके बलिदानों की कीमत की वापसी की - जिस दिन हम,आप दृढ़ प्रतिज्ञ हो जायेंगे, फिर न कोई २६/११ होगा ओर ना ही ऐसी वर्षगांठ आयेंगी - ”
किसी भी देश का भाग्य एवं दुर्भाग्य बनाते बिगाड़ते है, वहां के लोग । इतनी जनसंख्या के बावजूद हम इसे दुर्भाग्य के अलावा कुछ नहीं दे पा रहे है । क्योंकि हम अपना आकलन करने में असमर्थ है ! हमारे वर्त्तमान प्रधानमंत्री श्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने आप के बारे में बताया कि वह एक कमजोर प्रधानमंत्री नही है बल्कि वह एक शक्‍तिशाली और बहुत ही प्रभावशाली व्यक्‍तित्व वाले प्रधानमंत्री है । जिसका आकलन पूरे भारतवासी तो क्या वो हमलावरी भी कर चुके है । उन्होंने अपने आप को शक्‍तिशाली इसलिये बताया क्योंकि वे दोबारा सत्ता में वापस आये । उन्होंने यह नही कहा कि मैं एकमात्र ऐसा प्रधानमंत्री हूँ, जिसके समय में हजारों औरते विधवा हुई, जिनके कार्यकाल में हजारों बच्चे यतीम हुये, आखिरकार अफजल गुरू ने जिसे कमजोर और लाचार सरकार बताया ।

हमारे बीच ऐसे हजारों सवाल जेहन में समय-समय पर अवश्य कोसेंगे जिसका दर्द हम शायद सहन कर सके ।
मैं इतना अवश्य कहुंगा अपने नौजवान दोस्तों से कि हम बदलेंगे इसकी तख्दीर क्योंकि हर व्यक्‍ति बदलना चाहता है, और एक बार हम अपनी ताकत का आकलन कर ले तो हर चीज बदल सकती है, क्योंकि -
सारी शक्‍तियाँ हम मे ही समाहित है,
और हम कुछ भी कर सकते है, कुछ भी
अगर हम अपनी कमजोरियों को भूलाकर
एक नई चेतना के साथ एक नये जोश
के साथ शुरूआत करे तो-
अगर वास्तव में हम इसे रोकना चाहते है, तो हमें अपनी सोच को बदलना होगा। हमें खुद को बदलना होगा, और सच्चे मन से अपने-आप के प्रति वफादार होना पड़ेगा ।

लगे इस देश की ही अर्थ मेरे धर्म विधा धन,
करू मैं प्राण तक अर्पण यही प्रण सत्य है, ठाना ।
नहीं कुछ गैर मुमकिन है, जो चाहो दिल से तुम,
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना ॥


जय हिन्द



- मुकेश कुमार पाण्डेय

Tuesday, November 10, 2009

वनदे मातरम्





सौ साल पहले  श्री बंकिम चन्द्र चटर्जी ने इस गीत की रचना की थी। स्वतन्त्रता संग्राम के समय यह गीत क्रान्तिकारियों और देशवासियों मे जोश भरने का जरिया था। आज फिर देशवासियों मे जोश भरने का समय आ गया है। सभी देशभक्त मुसलमानों भाइयों से भी अपील है फर्जी इमामों के ऊल जुलूल फतवों को दर किनार कर वन्दे मातरम गाएं, आखिर वतन हम सभी का है। मादरे वतन से प्यार के इज़हार के लिए किसी फतवे की क्या जरुरत?

मेरा मानना है किः
किसी को वनदे मातरम् गाने के लिए मजबूर नही करना चाहिए – और दूसरी बात जो सच्चा हिनदुस्तानी है वोह ज़बरदस्ती नही बलकि दिल से वनदे मातरम् गाता है।

इतिहास:
वन्दे मातरम्‌ गीत आनन्दमठ में 1882 में आया लेकिन उसको एक एकीकृत करने वाले गीत के रूप में देखने से सबसे पहले इंकार 1923 में काकीनाड कांग्रेस अधिवेशन में तत्कालीन कांग्रेसाध्यक्ष मौलाना अहमद अली ने किया जब उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के हिमालय पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर को वन्दे मातरम्‌ गाने के बीच में टोका। लेकिन पं. पलुस्कर ने बीच में रुकर कर इस महान गीत का अपमान नहीं होने दिया, पं- पलुस्कर पूरा गाना गाकर ही रुके।

सवाल यह है कि इतने वषो तक क्यों वन्दे मातरम्‌ गैर इस्लामी नह था? क्यों खिलाफत आंदोलन के अधिवेशनों की शुरुआत वन्दे मातरम्‌ से होती थी और ये अहमद अली, शौकत अली, जफर अली जैसे वरिष्ठ मुस्लिम नेता इसके सम्मान में उठकर खड़े होते थे। बेरिस्टर जिन्ना पहले तो इसके सम्मान में खडे न होने वालों को फटकार लगाते थे। रफीक जकारिया ने हाल में लिखे अपने निबन्ध में इस बात की ओर इशारा किया है। उनके अनुसार मुस्लिमों द्वारा वन्दे मातरम्‌ के गायन पर विवाद निरर्थक है। यह गीत स्वतंत्रता संग्राम के दौरान काँग्रेस के सभी मुस्लिम नेताओं द्वारा गाया जाता था। जो मुस्लिम इसे गाना नहीं चाहते, न गाए लेकिन गीत के सम्मान में उठकर तो खड़े हो जाए क्योंकि इसका एक संघर्ष का इतिहास रहा है और यह संविधान में राष्ट्रगान घोषित किया गया है।

बंगाल के विभाजन के समय हिन्दू और मुसलमान दोनों ही इसके पूरा गाते थे, न कि प्रथम दो छंदों को। 1896 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अधिवेशन में इसका पूर्ण- असंक्षिप्त वर्शन गया गया था। इसके प्रथम स्टेज परफॉर्मर और कम्पोजर स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर थे।

1901 के कांग्रेस अधिवेशन में फिर इसे गाया गया। इस बार दक्षणरंजन सेन इसके कम्पोजर थे। इसके बाद कांग्रेस अधिवेशन वन्दे मातरम्‌ से शुरू करने की एक प्रथा चल पडी। 7 अगस्त 1905 को बंग-भंग का विरोध करने जुटी भीड़ के बीच किसी ने कहा : वन्दे मातरम्‌ और चमत्कार घट गया। सहस्रों कंठों ने समवेत स्वर में इसे दोहराया तो पूरा आसमान वंदे मातरम के घोष से गूंज उठा। इस तरह अचानक ही वन्दे मातरम्‌ और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को उसका प्रयाण-गीत मिल गया। अरविन्द घोष ने इस अवसर का बडा रोमांचक चित्र खींचा है। 1906 में अंग्रेज सरकार ने वन्दे मातरम्‌ को किसी अधिवेशन, जुलूस या सार्वजनिक स्थल पर गाने से प्रतिबंधित कर दिया गया।

प्रसिद्ध नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी और अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक मोतीलाल घोष ने बारीसाल में एकत्र हुए युवा कांग्रेस अधिवेशन के प्रतिनिधियों से चर्चा की। 14 अप्रैल 1906 को अंग्रेज सरकार के प्रतिबंधात्मक आदेशों की अवज्ञा करके एक पूरा जुलूस वन्दे मातरम्‌ के बैज लगाए हुए निकाला गया और पुलिस ने भयंकर लाठी चार्ज कर वंदे मातरम के इन दीवानों पर हमला कर दिया। मोतीलाल घोष और सुरेंद्र नाथ बनर्जी जैसे लोग रक्त रजित होकर सड़को पर गिर पड़े, उनके साथ सैकड़ों लोगों ने पुलिस की लाठियाँ खाई और लाठियाँ खाते खाते वंदे मातरम् का घोष करते रहे।।

अगले दिन अधिवेशन फिर वन्दे मातरम्‌ गीत से शुरू हुआ। 6 अगस्त 1906 को अरविन्द कलकत्ता आ गए और वन्दे मातरम्‌ के नाम से एक अंग्रेजी दैनिक ही निकालना शुरू किया। सिस्टर निवेदिता ने प्रतिबंध के बावजूद निवेदिता गर्ल्स स्कूलों में वन्दे मातरम्‌ को दैनिक प्रार्थनाओं में शामिल किया।

लेकिन नूरानी अकेले नहीं हैं जिनको देवी या माता जैसे शब्द भी सांप्रदायिक लगते हैं, 13 मार्च 2003 को कर्नाटक के प्राथमिक एवं सेकेण्डरी शिक्षा के तत्कालीन राज्य मंत्री बी-के-चंद्रशेखर ने ‘प्रकृति‘ शब्द के साथ ‘देवी लगाने को ‘‘हिन्दू एवं साम्दायिक मानकर एक सदस्य के भाषण पर आपत्ति की थी। तब उस आहत सदस्य ने पूछा था कि क्या ‘भारत माता, ‘कन्नड़ भुवनेश्वरी और ‘कन्नड़ अम्बे जैसे शब्द भी साम्दायिक और हिन्दू हैं?

1905 में गाँधीजी ने लिखा- आज लाखों लोग एक बात के लिए एकत्र होकर वन्दे मातरम्‌ गाते हैं। मेरे विचार से इसने हमारे राष्ट्रीय गीत का दर्जा हासिल कर लिया है। मुझे यह पवित्र, भक्तिपरक और भावनात्मक गीत लगता है। कई अन्य राष्ट्रगीतों के विपरीत यह किसी अन्य राष्ट्र-राज्य की नकारात्मकताओं के बारे में शोर-शराबा नह करता। 1936 में गाँधीजी ने लिखा - ‘‘ कवि ने हमारी मातृभूमि के लिए जो अनके सार्थक विशेषण प्रयुक्त किए हैं, वे एकदम अनुकूल हैं, इनका कोई सानी नहीं है।

अब हमारी जिम्मेदारी है कि हम इन विशेषणों को यथार्थ में बदलें। इसका स्रोत कुछ भी हो, कैसे भी और कभी भी इसका सृजन हुआ हो, यह बंगाल के विभाजन के दौरान हिन्दुओं और मुसलमानों की सबसे शक्तिशाली रणभेरी थी। एक बच्चे के रूप में जब मुझे आनन्दमठ के बारे में कुछ नहीं मालूम था और न इसके अमर लेखक बंकिम के बारे में, तब भी वन्दे मातरम्‌ मेरे ह्रदय पर छा गया। जब मैंने इसे पहली बार सुना, गाया, इसने मुझे रोमांचित कर दिया। मैं इसमें शुद्धतम राष्ट्रीय भावना देखता। मुझे कभी ख्याल नह आया कि हिन्दू गीत है या सिर्फ हिन्दुओं के लिए रचा गया है।

देश के बाहर 1907 में जर्मनी के स्टुटगार्ट में अंतर्राष्टीय सोशलिस्ट कांग्रेस का अधिवेशन शुरू होने का था जिसमें पं- श्यामजी वर्मा, मैडम कामा, विनायक सावरकर आदि भाग ले रहे थे। भारत की स्वतंत्रता पर संकल्प पारित करने के लिए उठ मैडम कामा ने भाषण शुरू किया, आधुनिक भारत के पहले राष्ट्रीय झण्डे को फहराकर। इस झण्डे के मध्य में देवनागरी में अंकित था वंदे मातरम्‌। 1906 से यह गीत भारतीयों की एकता की आवाज बन गया। मंत्र की विशेषता होती है- उसकी अखण्डता यानी इंटीग्रिटी। मंत्र अपनी संपूर्णता में ही सुनने मात्र से से भाव पैदा करता है। जब

1906 से 1911 तक यह वंदे मातरम्‌ गीत पूरा गाया जाता था तो इस मंत्र में यह ताकत थी कि बंगाल का विभाजन ब्रितानी हुकूमत को वापस लेना पडा, लेकिन, 1947 तक जबकि इस मंत्र गीत को खण्डित करने पर तथाकथित ‘राजनीतिक सहमति बन गई तब तक भारत भी इतना कमजोर हो गया कि अपना खण्डन नहीं रोक सका यदि इस गीत मंत्र के टुकड़े पहले हुए तो उसकी परिणति देश के टुकडे होने में हुई।

मदनलाल ढींगरा, फुल्ल चाकी, खुदीराम बोस, सूर्यसेन, रामप्रसाद बिस्मिल और अन्य बहुत से क्रांतिकारियों ने वंदे मातरम कही कर फासी के फंदे को चूमा। भगत सिंह अपने पिता को पत्र वंदे मातरम्‌ से अभिवादन कर लिखते थे। सुभाषचं बोस की आजाद हिन्द फौज ने इस गीत को अंगीकार किया और सिंगापुर रेडियो स्टेशन से इसका सारण होता था।

1938 में स्वयं नेहरूजी ने लिखा-‘ तीस साल से ज्यादा समय से यह गीत भारतीय राष्ट्रवाद से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा रहा है। ‘ऐसे जन गीत टेलर मेड नहीं होते और न ही वे लोगों के दिमाग पर थोपे जा सकते हैं। वे स्वयं अपनी ऊँचाईया हासिल करते हैं। यह बात अलग है कि रविन्नाथ टेगौर, पं. पलुस्कर, दक्षिणरंजन सेन, दिलीप कुमार राय, पं- ओंकारनाथ ठाकुर, केशवराव भोले, विष्णुपंथ पागनिस, मास्टर कृष्णावराव, वीडी अंभाईकर, तिमिर बरन भाचार्य, हेमंत कुमार, एम एस सुब्बा लक्ष्मी, लता मंगेशकर आदि ने इसे अलग अलग रागों, काफी मिश्र खंभावती, बिलावल, बागेश्वरी, झिंझौटी, कर्नाटक शैली आदि रागों में गाकर इसे हर तरह से समृध्द किया है। बडी भीड भी इसे गा सकती है, यह मास्टर कृष्णाराव ने पुणे में पचास हजार लोगों से इस गीत को गवाया और सभी ने एक स्वर में बगैर किसी गलती के इसको गाकर इस गीत की सरलता को सिध्द किया।फिर उन्होंने पुलिसवालों के साथ इसे मार्च सांग बनाकर दिखाया। विदेशी बैण्डों पर बजाने लायक सिद्ध करने के लिए उन्होंने ब्रिटिश नेवल बैण्ड चीफ स्टेनलेबिल्स की मदद से इसका संगीत तैयार करवाया।

26 अक्टूबर 1937 को पं- जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कलकत्ता में कांग्रेस की कार्यसमिति ने इस विषय पर एक प्रस्ताव स्वीकृत किया। इसके अनुसार ‘‘ यह गीत और इसके शब्द विशेषत: बंगाल में और सामान्यत: सारे देश में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीयय तिरोध के प्रतीक बन गए। ‘वन्दे मातरम्‌ ये शब्द शक्ति का ऐसा पस्त्रोत बन गए जिसने हमारी जनता को प्रेरित किया और ऐसे अभिवादन हो गए जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की हमें हमेशा याद दिलाता रहेगा।

गीत के प्रथम दो छंद सुकोमल भाषा में मातृभूमि और उसके उपहारों की प्रचुरता के बारे में देश में बताते हैं। उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिस पर धार्मिक या किसी अन्य दृष्टि से आपत्ति उठाई जाए।
जय हिन्द।

Sunday, October 4, 2009

हमारा संकल्प




हमारा संकल्प (लक्ष्य) जो हिमालय की ऊंचाइयों से भी ऊँचा और बुलंद है, जहां हमें आज से काफी पहले पहुँच जाना था, परन्तु हम अपनी मनोकामनाओं की वजह से उसे पाने में असफल रहे । जिसका सारा श्रेय हमी को जाता है, और सिर्फ हमी को । जिसका परिणाम यह है कि हमारे पास हजारों मुश्किलें वही बनी हुई हैं । हम उन मुश्किलों में कमी लाने के बजाय और बढ़ा चुके हैं, तो प्रश्न यह उठता है, कि क्या हम अपने अतीत को भुलाकर एक नये भविष्य की नीव रखें, या उन घटनाओं से सबक लें जो अतीत में घटित हुईं । मेरा मानना है, कि नहीं हम एक नये भविष्य की बुनियाद तो जरूर रखेंगे, मगर अतीत की घटनाओं से जो परिणाम निकले, उसको भी दिमाग में रखेंगे । हम आज फिर वो गलतियां दोहराने की कोशिश कदापि नही करेंगे जो पहले हुईं । हम फिर से जयचंद को अवसर ही नही देगें, जो हमारी बर्बादी, हमारी संस्कृति की बर्बादी का कारण बन सके । हम ऐसे लोगों को भी अवसर नहीं देंगे, जो आजाद रहने पर सत्ता की बागडोर संभालते हैं । और गुलाम होने पर उनके सहकर्मी बन जाते हैं । हमें और इस देश को, इस समाज को ऐसे महानायकों की जरूरत है, ऐसे युवाओं की जरूरत है जो, अनुकूल और विपरीत परिस्थितियों में धैर्य के साथ, देश व समाज के विकास के प्रति स्थिर  व क्रियाशील रह सकें । हम आज एक नई दुनिया (राष्ट्र) की बुनियाद रखेंगे, जिसमें नींव से लेकर गुम्बद तक की हर ईंट, हर वो कण कर्तव्यनिष्ठ, कर्मठी व ईमानदार होगा । यही होगा “हमारा संकल्प” राष्ट्र उत्थान का सामाजिक विकास व समन्वय का ।
  हमारा संकल्प यह तय करेगा की, इसका नेतृत्व कौन करेगा ? कौन इसके सपनों  को मंजिलों में तब्दील करेगा । हमारा संकल्प तब तक पूरा नहीं होगा जब तक इस समाज से, इस देश से उन लोगों का सफाया नहीं हो जाता । जो सत्ता लौलुपता की वजह से हमें तथा इस समाज व देश को बर्बाद करते जा रहे हैं । हमें रोकना है, उन सारे नेताओं को जो देश की सुरक्षा, व्यवस्था के बजाय अपनी सुरक्षा को ज्यादा महत्व देते हैं । जो हमारे आपके सहनशीलता व सांस्कृतिक होने का गलत इस्तेमाल  करते हैं । हमारा संकल्प तब तक पूरा नहीं हो सकता, जब तक हम और आप उन लोगों को अवसर देना बन्द नहीं करते । हम सब कुछ जानते हुए भी शांत बने हुए हैं आज हमारे द्वारा चुने गए राजनेता हमें ही पशु ठहराते हैं, हमारी सहनशीलता को हमारी कायरता समझते हैं । हमारे आपके आमदनी की कटौती से अपनी सुविधाओं के लिए खर्च करते हैं । और हम उसे चुपचाप सहन कर जाते हैं, अगर नहीं सह सके तो दो चार गाली देकर दिल को तसल्ली दिला लेते हैं । अगर हमें अपना संकल्प पूरा करना है, तो हमें अपने आप में बदलाव लाना ही होगा । हमें अपनी जिम्मेदारियों को निभाना ही होगा । किसी महान विचारक ने इस प्रजातंत्र की व्याख्या इस प्रकार से की है -
प्रजातंत्र का अर्थ है, - हजार, लाखों, विद्वानों का नेतृत्व एक मूर्ख के हाथ में होना, जो आज सिद्ध होती दिख रही है । आज हम सारे नौजवान दोस्त जो, किसी न किसी कार्य में निपुण हैं, हम राजनीति, कानून, विज्ञान, सूचना, प्रौद्योगिकी, साहित्य बल, साहस में कुशल होते हुए भी, उन सारे लालची मुर्खों के नेतृत्व में हैं ।
 अगर हमारा नेता मूर्ख है, तो इसका अर्थ यह है, की हम सारे लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं, क्योंकि  उसे अवसर हमने दिया है- एक छोटे उदाहरण से ये सारी बातें और भी स्पष्ट हो जाती हैं, वो है चुनाव ।
 चुनाव चाहे सांसद का हो, विधायक का हो या ग्राम प्रधान का ही क्यों न हो, हम उसमें बिल्कुल दिलचस्पी नहीं रखते, हम अर्थात वो सारे लोग, जो चाहे नौजवान हो चाहे बुजुर्ग । जो कैरियर, सेवा, शिक्षा या किसी अन्य कारण की वजह से अपने-अपने क्षेत्रों से बाहर रहते हैं, उनके लिये यह चुनाव कोई मायने नहीं रखता, उनके लिए मायने रखता पर्व-त्यौहार जिसमें वो अपने-आप को उन अवसरों भर पर मनाते हैं । वो वोट को उन पर्व त्यौहारों से ज्यादा महत्व नहीं देते हैं । फिर परिणाम क्या होगा, वही लोग अवसर पायेंगे जो देश को खरीद-फरोख्त से लेकर इसके दामन में दाग लगायेंगे ।
  अगर हमें अपने इस संकल्प को पूरा करना है, तो हमें चेतना लानी होगी उन सभी लोगों में । हमने कुछ दिन पहले अखबार में पढ़ा था, कि लालू यादव से प्रेस कान्फ्रेंस में पूछा गया कि आपके कारनामे अखबार में छपे हैं । इस पर आपके वोटरों पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? तो उन्होंने जवाब में कहा था कि- हमारी वोटर तो वो जनता है, जो अखबार ही नहीं पढ़ती । आप स्वयं इसका आकलन कर सकते हैं, कि ऐसे राजनेता जनता को किस रूप में देखना चाहते हैं । ऐसे राजनेता हमें तथा उन जनता को शिक्षित भी नहीं देखना चाहते तो वो देश, राज्य व समाज का क्या विकास कर सकते है ः-
 ऐसे हमारे और आपके बीच हजारों घटनाओं के उदाहरण अवश्य होगें ।
  हमारी संकल्पना एक ऐसे निश्‍चय के रूप में होना चाहिये जिसमें हम किसी के साथ किसी भी प्रकार का समझौता न करें । हम अपने और गैर में फर्क न महसूस कर सकें क्योंकि आज का जो समय है, वह फिर नहीं आने वाला है ।
                 जीने के लिये मौत से सौदा नहीं करते,
                 नजदीकियों का भ्रम न हो, लग जायें पालने,
                 ये सोचकर लो गैर से पर्दा नहीं करते ।
                 जाते हुए समय ने यह कहकर विदा ली,
                 लौटेंगे इसी मोड़ पर वादा नहीं करते ॥
फिर भी हम आज जहां हैं, जिस स्थिति में हैं, वह अधिक संतोषजनक तो नहीं, परन्तु हम इसे कुछ समय के लिये संतोषजनक अवश्य समझ सकते हैं, क्योंकि हमारे ही देश के कुछ भागों में इसकी शुरूआत तो हो चुकी है, -
 कोई भी देश, कोई भी समाज बेहतर नहीं होता है । उसे बेहतर बनाया जाता है । और बेहतर होते हैं, वहां के लोग । जो उसे बेहतर बनाते हैं । आज दुनिया में काफी बदलाव आ चुका है । हमें बदलाव के साथ अपने समाज को, देश को नयी दिशा देनी होगी , एक नई क्रांति लानी होगी जिससे देश को इन परिस्थितियों से उबार सकें । और विश्‍व पटल पर वर्चस्व स्थापित करें । 
  इसको पाने के लिए हमें भले ही शांति ही भंग क्यों न करनी पड़े । हमें बुद्ध और गाँधी के वचनों को झुठलाना ही क्यों न पड़े । आज जरूरत है, देश को हमारी, और हम उम्मीद करते हैं, कि आप और हम एकजुट होकर तैयार हैं, इसके संकल्प को पूरा करने के लिए । अगर ऐसा हुआ तो, मैं उम्मीद करता हूँ की जो हमारे देश से वो सारी समस्यायें अवश्य दूर हो जायेंगी, चाहे वह भ्रष्टाचार का हो या आतंकवाद का, अशिक्षा का हो या भुखमरी का । वास्तव में देखा जाय तो सारी समस्याओं की जड़ है, कि कौन शुरूआत करे ? सबके अंदर एक उबाल है, जैसे लगता है कि एक बीमारी से सब पीड़ित हैं । सबकी स्थिति ठीक वैसे ही है -
     “सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यों है,
       इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है?
जरूरत है, मार्गदर्शक की, कौन पहले उठे कौन दिशा निर्देश दे, कि हमें क्या करना चाहिए ?
   अगर हमें अपना संकल्प पूरा करना है तो हम सबको आगे आना ही होगा । नींव की ईंट तो बननी ही पड़ेगी । क्योंकि बिना उस ईंट की इमारत मैं उम्मीद तो नहीं हो सकती । मैं उम्मीद करता हूँ, आप सभी से की आपमें से हर व्यक्‍ति जरूर तैयार होगा नींव की ईंट बनने के लिए । क्योंकि पूजन तो उसी ईंट की होता है, जो सबसे पहले इमारत में लगती है । बलिदान तो उसी का महत्वपूर्ण होता है । यह तो अलग ही बात है, कि उस पर नकासी नहीं होती उस पर सजावटें नहीं होतीं ।
   मैं उम्मीद करता हूँ कि हमारा संकल्प एक ऐसा स्वप्न है, जो रात में सोने के वक्‍त नहीं देखा गया, बल्कि वो स्वप्न है जिसकी वजह से हम रात को सो नहीं पाते हैं । हमारा संकल्प एक ऐसी उम्मीद है, जिसको हमें हर कीमत पर सत्यार्थ करना ही होगा । इसको पाने के लिये हमें साहस, धैर्य, बलिदान व त्याग की जरुरत है । हमें अपने अन्दर से कायरता, द्वेष को नष्ट करना पड़ेगा । ” हमें अपने आप को खुद बदलना होगा, क्योंकि हम किसी दूसरे महापुरूष का अनुसरण तो दूर उसमें दिलचस्पी भी नहीं रखते । अगर ऐसा नहीं होता तो, गीता, कुरान पढ़कर महात्मा बुद्ध, गाँधी का अनुसरण करके आज हम कहाँ होते । मगर हम सिर्फ समस्याओं को समाप्त करने के बजाय दूसरे को जिम्मेदारी कहकर टालते चले जाते हैं । जिसका परिणाम हमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में कहीं न कहीं अवश्य दिखता है । आज जरूरत है, हर व्यक्‍ति को कि वो समस्याओं से लड़े वह खुद ही गाँधी भी है, सुभाष भी है, और स्वयं गीता और कुरान का प्रतिनिधि भी, क्योंकि जब तक हम अपनी शक्‍तियों को अपने विद्वता को खुद नहीं समझेंगे, उस पर विश्‍वास नहीं करेंगे तब तक हम  किसी समस्या का समाधान क्या किसी छोटे से कार्य को भी नहीं कर सकते ! स्वयं स्वामी जी ने कहा है,
                          ``you can not believe God,
                                      until you believe in yourself ''


तो जरूरत है । अपने आत्मविश्‍वास को जगाने की और लोगों में एक नयी-चेतना लाने की, जिससे हर व्यक्‍ति अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए, अपने कर्तव्य का पालन करे । तो वह दिन दूर नहीं होगा जिस दिन हमारा संकल्प पूरा होगा हमारी मंजिल हमें मिलेगी ।
 जब एक छोटे से कार्य में परेशानियाँ आ सकती हैं, तो हम तो बहुत बड़े ही अभियान की शुरूआत करने जा रहे हैं तो, हमें परेशानियां तो अवश्य मिलेंगी । मगर उससे हमें विचलित नहीं होना चाहिए । और अन्त में मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा -
                       मुश्किलें दिल के इरादे आजमाती हैं,
                       स्वप्न के वादे निगाहों से हटाती हैं,
                       हैं, सलामत हार , गिर कर ओ मुसाफिर
                       ठोकरें इंसान को चलना सिखाती हैं ।

Monday, September 7, 2009

मैं और मेरा अतीत

“एकोअहम द्वितीयो नास्ति”- अर्थात सिर्फ मैं और कुछ भी नहीं, मुझसे ही शुरू होती है और जो मुझ पर चलती रहती है ।
“मैं जो एक सोच है, एक संस्कार है, और एक देश है।
जिसने अतीत में कुछ भविष्य की इमारतों की बुनियाद रखी थी । क्या मै अपने आज में उन सपनों को पाता हूँ । जो हमने अतीत में संजोये थे । मैं जो दुनिया को प्रेम और सौहार्द से एक परिवार तथा उसके सदस्य होने का बीड़ा उठाया था ! क्या साकार कर सका । क्या हुए वो सपने, क्या हमने शांति और प्रेम के पुजारियों का बलिदान यूं ही व्यर्थ गंवा दिया ।
आज मैं इन सारे सवालों का उत्तर जब दूंढ़ता हूँ तो अपने आप को बहुत शर्मिंदा समझता हूँ, क्योंकि वो सारे अतीत नहीं हमारे भविष्य की नींव से इमारत बन सके नहीं, दुनिया में शांति स्थापित हो सकी । मिला तो सिर्फ, द्वेष, ईर्ष्या, कलह और सिर्फ अपना विकास करने की होड़, जिससे न तो अपना ही विकास हो सका ना ही समाज या देश का ।
बहुत महापुरूष कहते हैं कि आप अगर अपना विकास करे अपने आप को बदलें तो दुनिया बदल सकती है, मगर मे उनके अनुभवों से शत प्रतिशत सहमत नहीं हूँ । और न ही आपको भी होना चाहिये । जरूरत है मैं को बदलने की मैं में शांति स्थापित करने की, जो मैं एक व्यक्‍ति नहीं, एक समाज का नेता है जो नायक है उस देश का, उस संसार का जिसमें आधे से अधिक की आबादी अपने अस्तित्व तथा अपने होने और न होने की परिभाषा तक नहीं समझती । मैंने अपने अतीत में रावण से इस संसार को मुक्‍त कराकर शांति और प्रेम की स्थापना की तो कभी चन्द्रगुप्त बनकर सिकन्दर जैसे महत्वाकांक्षी महापुरूष के हृदय में शांति स्थापित किया । काफी नरसंहार के बाद अशोक के हृदय में शांति, प्रेम, शरणागत कराया ।
मगर आज मैं चाहते हुए भी इस संसार को प्रेम और शांति का पाठ नहीं पढ़ा सकता, क्योंकि यह प्रकृति की विलक्षणता ही तो है, कि बिना बलिदान के शांति और प्रेम स्थापित नहीं किया जा सकता । मैं बार-बार दूसरों के द्वारा सोमनाथ मंदिर के रूप में लूटा गया तो कभी अपने ही सपूतों के द्वारा बाँटा भी गया । मैं कभी भारत से हिन्दुस्तान, पाकिस्तान बना । मैं जो अतीत था, आज उसकी केवल परछाई रह गई है । आज के मैं में मेरा मानना है कि मैं के सपने बार-बार यूँ ही बनते और टूटते रहेंगे । जब तक की इसको साकार करने की शपथ हम आज और अभी नहीं लेते ।
हमारे अतीत का दुर्भाग्य भी उसी दिन से शुरू हुआ, जिस दिन से हमने अपने नजरिये से अपना, पराया, धर्मवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद के आधार पर अलग समझा । आखिर कब तक होती रहेंगी ऐसी घटनायें, कब तक हम इसे दुर्भाग्य कह कर टालते रहेंगे । कब तक अपने अमानवीय, व्यवहारों से अपने अतीत को जिम्मेदार ठहराते रहेंगे । आज हम जिसे गुनाहगार समझते या ठहराते हैं, उसके जिम्मेदार भी तो हमी हैं । मैं मौन था । उस समय भी, और आज भी रहूँगा । मुझे दुख उतना ही महसूस होता है । जब आप किसी सफलता पर उत्साहित होते या जश्न मनाते हैं। तो इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं आपसे आपकी सफलता से द्वेष करता हूँ । हाँ मुझे द्वेष है, आपके तरीके पर आपकी सोच पर क्योंकि उसके भविष्य में भी अंकुर फूटने वाले हैं, जो आज मेरे सामने है । वह कल आपसे वही प्रश्न करने वाला है, जो आज मैं जबाब ढूंढ़ नहीं सका हूँ । या जिसका जबाव मेरे पास नहीं है ।
आज मेरे सामने शब्दों की परिभाषायें और मतलब बदल गया है । क्योंकि ऐसा न होता तो, वो शब्द, वो गीत बनते ही नहीं जिसका अस्तित्व आज भी हमारे आपके बीच है, एक छोटा सा उदाहरण आपके समक्ष है, धर्म का जो सदियों पुराना है, जिसे सिर्फ इस लिए बनाया गया जो पूरे विश्‍व को एक प्रेम के धागे में बाँध सके ।
एक ऐसा शब्द जिसमें पूरा विश्‍व एक परिवार बन सके,
न कि हिन्द राष्ट्र या मुसलमान राष्ट्र सिख, या कैथोलिक राष्ट्र ही बने ।
जब धर्म एक शब्द था, तो उसके इतने सारे प्रारूप कैसे हुए, कैसे हुआ अलग-अलग रूप इसका आज इसका अर्थ बिल्कुल ही बदल चुका है, क्योंकि आज धर्म लोगों को जोड़ने के बजाय एक-दूसरे से मतभेद रखते हैं । एक-दूसरे को सताते हैं । कहीं गोधरा में मुस्लिम जलते हैं, तो वहीं कश्मीर में हिन्दू प्रताड़ित किये जाते हैं । -
ये सारे मुद्दे सिर्फ और सिर्फ कलह पैदा कर सकते हैं, शांति और प्रेम नहीं-
तो आइए क्यों न हम एक धर्म बनायें जो कि मानव धर्म हो, जिसमें मानव तो क्या कोई भी जीव जिसे दुख होता है, जो अशांति महसूस करता हो उसमें शांति की स्थापना करे ।
आज मैं के सामने जो सबसे बड़ा प्रश्न है, वो है, “मैं की बागडोर किसके हाथ में हो, कौन उसका सारथी बने जो इसे इन सारे प्रश्नों का उत्तर उसी के ही कर्मक्षेत्र, कुरूक्षेत्र में दे सके । जो मन की गति से भी तेज दौड़ सके ।
आज यह जो प्रश्न है, वह अब तक हुए सारे युद्ध के कारणों से बड़ा है वह सबसे महत्वपूर्ण इस लिए है, कि इस युद्ध के बाद कोई भी बचने वाला नहीं है । आज उसका प्रतिदंद्वी अन्य नहीं स्वयं ही है, क्योंकि जब आप स्वयं को मार दोगे फिर क्या बचेगा ?
आपको विजय पानी है, स्वयं पर और जीतना भी स्वयं को है, और हराना भी स्वयं को ।

आज मैं जो “हमारा देश” एक महत्वपूर्ण बदलाव के बाद प्रजातांत्रिक देश के रूप में दुनिया में अपने आप को विशेष रूप में स्थापित करना चाहता है, जो फिर से एक बार वही सपना जो साकार करना चाहता है, लेकिन हमलोग इसके उस सपने को हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं । हम अपने आप को उसकी महत्वाकांक्षा को लक्ष्य के रूप में नहीं तब्दील कर रहें हैं, क्योंकि हम उसकी महत्वाकांक्षा का महत्व अपनी आकाक्षांओं से धो देना चाहते हैं ।
हम उसके लक्ष्य को अपना लक्ष्य नहीं मानते, हम उसके विकास को अपना विकास नहीं मानते, हम अपने निजी विकास व सुख को ज्यादा तवज्जो देते हैं । हम दूसरे के दुखों से दुःखी नहीं होते हैं, उसके सुख से सुखी भी नहीं होते हैं, क्योंकि हम केवल अपना स्वयं अपने ही सुख और दुख का अनुभव करते हैं ।
अगर हममें से हर व्यक्‍ति अपने आपको बदलते हुए हर एक दूसरे के सुख -दुःख का सहभागी बन सके, तो वही अनुभूति है सच्चे सुख की और दुःख की । वास्तव में वही मानव है, वही सच्चा राष्ट्रभक्‍त व समाजसेवी हो सकता है क्योंकि-
“यूं तो हर आँख यहाँ बहुत रोती है,
हर बूँद मगर अश्क नहीं होती है,
देखकर रो दे जो जमाने का गम
उस आँख से गिरा हर अश्क मोती है ।"
अन्त में मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि आप हम अपने आप को बदलते हुए एक ऐसे समाज की स्थापना करे, एक ऐसे देश का निर्माण करे, एक ऐसा देश का निर्माण करें, जिसमें एक सामन्जस्य स्थापित हो सके । फिर से प्रेम, सौहार्द्र का वर्चस्व रहे, क्योंकि-
``A good heart is better than
all the heads in the world"

thanks

मुकेश कुमार पान्डेय

Monday, August 31, 2009

राजनीति में युवाओं की भागीदारी

राजनीति में युवाओं की भागीदारी
- मुकेश कुमार पाण्डेय

हमारा देश (भारत) एक बहुत ही बड़ा प्रजातांत्रिक देश है । जिसकी विशालता, हमें उसके राजनीतिक उथल-पुथल से मालूम होता है । हमारे इस देश में बहुत ही अहम विभूतियां पैदा हुई, जिन्होंने अपने विचारों से विश्‍व के राजनीतिक परिदृश्य पर अद्‌भुत छाप छोड़ी । आज भी उनका कद्र देश के बाहर उतना ही है, जितना अपने देश में । आज का समय युवाओ के लिये बहुत ही उत्कृष्ठ है । क्योंकि इस समय हमारे देश में जितनी भी राजनीतिक पार्टियां सक्रिय है । उनमें युवाओं की कमी आपको जरूरत महसूस होगी, उनके पास वही मुद्दे, वही विचार, वही सोच आज भी है, जो सन्‌ १९४७ में था । अपितु हम उसे संतोषजनक नहीं कह सकते । जब हमारा देश आजाद हुआ उससे पहले यह अनेक राज्यो, विरासतों में विभाजित था । उस समय भी राजनीतिक परिदृश्य वही थे, जो आज है । वही क्षेत्रवाद, वही जातिवाद, एवं वंशवाद से ओतप्रोत, गंदी राजनीति, जिसकी वजह से हमारी संस्कृति कभी नष्ट हुई तो कभी विदेशी लुटेरों का सम्राज्य स्थापित हुआ । जिनके आपसी कलह की वजह से ही महाराणाप्रताप जैसे सच्चे देशभक्‍त के समय मे अकबर महान कहलाया । वो क्या था ? प्रश्न हमारे बीच आज भी वही है कि हम उन लोगों को आज भी प्रोत्साहित कर रहे है । जिनमें वंशवाद की राजनीतिक, तो कहीं एक ही देश में उसको धर्म के आधार पर, अलगाव का हवा दिया जा रहा है । हम अगर किसी मंच से किसी एक समुदाय की रक्षा की बात कह दें, तो उसे दूसरे समुदाय के प्रति बगावत करार दिया जाता है । आखिर कब तक होता रहेगा सब -
“ करता नही क्यूँ, दूसरा कुछ बातचीत
देखता हूँ , मैं जिसे वो चुपचाप तेरी महफिल में ।
आखिर कब तक हम अपने ही घरो में मेहमान बनकर रहेंगे ! कब तक !
हम नौजवानों ने ही इसकी संस्कृति को बचाया है । जब-जब समय आया है , तब-कोई न कोई, सुभाष बना, तो कोई भगत सिंह । आज का सही समय आ गया है, अपने-आपको साबित करने का, अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने का । हम पुलिस-चौकी से लेकर, सीमा तक ही नहीं, लोकसत्ता में भी अपनी कौशल निस्वार्थ भाव से कर सकते है । आज के नेता जो सिपाहियों के मरने को भी राजनीतिक मुद्दा बना देते है । उसे रोकना होगा ! नहीं तो हर सिपाही, हर जवान, अपने कर्तव्य को निभाने से चुक जायेगा । हमारा अपने देश के प्रति ऐसा ही भाव होना चाहिए कि-
जन्म से आग हूँ, शबनम नहीं,
इसलिये ताशिर मेरा, नाम नहीं ।
जग संवर जाये, मेरी कोशिश हों ये,
हम बिखर जाये , कोई गम नहीं । ।
आज जैसे कुछ राजनीतिक पार्टियां, वंशवाद को युवाओं की पार्टी बतलाती है । इसमें कितनी सच्चाई है? आप इसका स्वयं आकलन कर सकते है कि उन युवाओं में कौन है? ध्यान देने वाली बात है- उनमें कोई भुतपूर्व प्रधानमंत्री के लड़के है, तो कुछ कैबिनेट मंत्री के सुपुत्र है । सोचने वाली बात यह है कि एक आम आदमी ऐसा अवसर क्यों नही पाता है , क्यों नही हम, आप राजनीति का हिस्सा बन पाते है? दूसरों के सुख-दुख को उतना नहीं जान पाते जितना U.S में पढ़ाई से लौटने के बाद पूरा दिन ऐसो-आराम में रहने वाला व्यक्‍ति चन्द कुछ पल, घंटों, रातों में उनके सुख-दुख को अपना बताने में सफल होता है, और वहीं समाज जिनके सारी परेशानियों से लेकर खुशियों में आप होते हैं । आप उनके प्रिय नहीं बन पाते आप मसीहा नहीं कहलाते । मैं यह कहना चाहता हूँ कि वह आदमी ज्यादा कर्मठी ही या सुविधायुक्‍त एवं अवसरवादी नही है । अवसरवादी तो हम, आप है जो कभी भी अपने कार्यों, अपने लोगों के अलावा सोचा ही नहीं । हम उनके बीच रहकर भी उनके विश्‍वास में खरे नहीं उतरते । जो एक देश के प्रति होना चाहिये जो की समाज के प्रति होना चाहिए । हम पुत्र हैं, पहले भारतमाता के फिर अपनी माँ के जिसने हमें पाला, हम ऋणी है, उसके जिसने हमें बचपन से लेकर अबतक रहने का, खेलने का, काम करने का, यहाँ का होने का उपहार दिया- जरा सोंचे हमने क्या दिया ? बदले मे ं इसे, समय आने पर निराशा ही हाथ लगी - क्योंकि हममें से ही कोई जयचंद्र हुआ तो कोई बी० पी० सिंह, एक ने मुहम्मद गोरी को अवसर दिया तो दूसरे ने जाति के आधार पर देश को बर्बाद किया । वही राजनीति हमारे देश की राजनीति में धूरी की तरह काम कर रहा है । जितनी भी क्षेत्रीय पार्टियां है उनकी राजनीति क्षेत्रवाद, धर्मवाद, से जातिवाद तक सिमट कर रह जाती है । सबसे शर्मनाक बात यह है कि बड़ी पार्टियां इस मामले में कम नहीं है ।
प्रश्न यह नहीं है कि कौन क्या है? उसका उदेश्श्य क्या है? प्रश्न यह है कि हमें उससे मुक्‍ति कैसे मिलेगी, हमारे प्रयास क्या होंगे ? क्योंकि हमें भी सावधान रहना पड़ेगा । मैं विश्‍वास करता हूँ कि हर आदमी उब चुका है ऐसे राजनीतिज्ञों से, और हम युवा भी तैयार है उनका जवाब देने के लिये -तभी-
है लिये हथियार दुश्मन , ताक में बैठा उधर,
और हम तैयार है, सीना लिये अपना इधर ।
खून से खेलेंगे होली, गर वतन मुश्किल में हैं । ।

दिल में तूफानों की टोली, और नसों में इन्कलाब ,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे, हमें कोई रोको न आज ।
दूर रह पाये जो हमसे, दम कहाँ मंजिल में है । ।

आज जरूरत हैं हमारी और हम उम्मीद करते हैं कि आप लोग बदलेंगे , इस समाज को , इस देश को अगर हम प्रयोगों, अनुप्रयोगों से किसी व्यक्‍ति को जीवन देने में सफल होते तो हम नये अनुसंधानों के माध्यम से चाँद, मंगल, पर पहुँच कर वहाँ की परिदृश्य बदल सकते हैं । तो आखिर इस देश की बुराइयों को क्यों नहीं समाप्त कर सकते हैं । हमें एक होने की जरूरत हैं महत्वकांक्षी बनने की जरूरत हैं, प्रेम, सौहार्द स्थापित कर सामाजिक समन्वय लाने की जरूरत हैं । तो सबसे पहले हमारा एक ही उदेश्श्य हों वो हों - राष्ट्रीय व सामाजिक समन्वय । हमें राजनीति नहीं करनी हैं धर्म की, जाति की, क्षेत्र की, हमें राजनीति करनी होगी राष्ट्र उत्थान की । हमें घोषणापत्र जारी करना होगा , देश के सामाजिक संतुलन का, एक दूसरे को जोड़ने का , हमें सोचना होगा पूरे देश की जनता का, न की बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक का । क्योंकि शक्‍ति जोड़ने से बनती है तोड़ने से नहीं । हमारा देश एक है और हमेशा एक रहेगा । हम इसे फिर टूकड़ों में नहीं बँटने देंगे । हमारा एक ही लक्ष्य होगा एक ही गीत होगा- “एक सद्विपा बहुधा वन्दति ” मतलब एक भारत जिसमें सबकुछ समाहित होगा ।
हमें अपनी प्रतिभा का उपयोग दूसरे उत्थान में करना होगा । क्योंकि किसी भी देश की मजबूती उसके राजनीतिक कौशल, निपुणता से होती हैं । हम अपना वर्चस्व विश्‍व पटल पर दर्शा सकते है । मैं आह्वान करता हूँ, उन तमाम नौजवान दोस्तों से जोकि राजनीति में रूचि नहीं रखते हैं जिससे उनको लगता है कि इसमें उनका नुकसान नहीं है तो यह केवल उनका एक भ्रम है । क्योंकि देश की सारी घटना चक्र वहीं से शुरू और वहीं खत्म होती है । मैं चाहुँगा कि आप सभी अपनी जिम्मेदारियों को समझें और एक ऐसा माहौल बनाये जिससे हमारा देश, हमारी पीढ़ी, और हमारे अपने हम पर तथा अपने देश पर गर्व कर सकें क्योंकि -
`` we can not change anything unless we accept it ''
धन्यवाद
मुकेश कुमार पांडेय

Friday, April 24, 2009

देश के प्रति युवाओं का उत्तरदायित्व:

देश के प्रति युवाओं का उत्तरदायित्व ः

दो अक्षरो से बना शब्द युवा जिसमे इतनी शक्‍ति, सहनशीलता और प्यार भरा हुआ, एक ऐसा उत्साह है, जिससे कोई भी, देश कोई भी समाज अपने आप को गार्वान्वित समझ सकता है । इसमें इतनी शक्‍ति है, जिससे किसी भी ताकत का मुकाबला किया जा सके । अगर हम इस शब्द पर ध्यान दें । या इसका समय पर प्रयोग करें तो यही युवा वायू बन जाती है । और आप वायु का अर्थ , एवं इसका उपयोग भी जानते है । वायु में इतनी शक्‍ति या ताकत होती है की यह प्राण वायु के रूप में हर जीव में विद्यमान होती है , तथा समय आने पर प्रलय भी लाती है ।
किसी देश अथवा समाज की सबसे बड़ी सम्पत्ति है- मानव संसाधन और मानव संसाधन में सबसे उपयुक्‍त एवं भाग युवाओं का है । जिससे यह तो सिद्ध हो ही जाता है , कि युवा ही एकमात्र ऐसी क्षमता है, जिससे हम किसी भी बड़े से बड़े इमारत की नींव रख सकते है । और युवा रूपी नींव उस विकास को गगन-चूंम्बी इमारतों को जीवित भी रख सकती है । हम अधिक नही छोटी घटनाओं का उदाहरण देकर इसकी पृष्ठि कर सकते है- बात उन दिनों की है, जब हमारा देश अपना अस्तित्व, अपने संस्कार, अपना सबकुछ, यू कहे तो अपनी पहचान खो रहा था, उस समय भी युवाओं वे इसकी बागडोर संभाली देश को एक नयी पहचान दिलायी । वो युवा ही थे जिन्होंने बहुत कम समय में बड़ी सहजता से एक ऐसा सुत्र दे गये जो आने वाली नश्लों के लिये एक वरदान साबित हुआ है । वो इसी मिट्टी के बने मात्र २० से ३० साल के वीर सपुत थे जिन्होंने हंसते-हंसते देश के लिए, आने वाले वंशज, पीढ़ियो के लिए फाँसी को गले लगा लिया ।
हम आज के युवा उनके बलिदानों को क्यों व्यर्थ जाने दें ? प्रश्न यह नही है हमारा देश तब गुलाम था, और आज हम आजाद है । प्रश्न यह है कि हम अपने देश व समाज को कुछ ऐसी पहचान दें जिससे हमारा समाज ही नही यहा का हर नागरिक अपने आप को इस देश में रहने का कार्य का, तथा देश के लिये किसी भी योगदान के लिये अपने आप पर गर्व कर सकें कि ‘ हम उस देश के वासी है, जिस देश मे, आज भी ‘अतुल्य भारत’, ‘अनेकता में एकता’, ‘अतिथिः देवो भवः’, जैसी चीज केवल पुस्तको में नही अपितु वास्तविक रूप से विद्यमान है ।
हमारे देश में बहुत सारी कमियां भी है, जिसे दूर करना है । हमें संकल्प लेना है, कि जो गलतियां हमारे पूर्वजों ने की है, हम उसे कभी नही दोहरायेगें । हमें कसम है, इस देश के हर उन जवानो की जिन्होंने विभिन्‍न क्षेत्रों में अपना योगदान दिया है । मानता हूं, कि कोई भी देश पूर्ण नही होता लेकिन उसको पूर्ण बनाना हमारी जिम्मेदारी बनती है । इस देश में फैली हुई सभी सामाजिक बुराइयों पर विजय पाना है । अगर हम इस देश को उत्कृष्ठ बनाना चाहते है तो हमें उन तमाम सामाजिक बुराइयो को जड़ से समाप्त करना होगा । हम जानते है कि अगर इसे कोई कर सकता है तो वो और कोई नही बल्कि युवा है । क्योंकि इसमें बहुत ही धैर्य, प्यार, जोश और शक्‍ति की आवश्यकता होगी ।
किसी भी समाज के विकास में शिक्षा काम बहुत बड़ा योगदान रहा है । क्योंकि जो युद्ध तलवार से नही जीती जा सकती वो कलम की ताकत पर जीती जा सकती है । जैसा की धर्मवीर भारती ने लिखा है ।

कलम देश की बड़ी शक्‍ति है , भाव जगाने वाली ।
दिल ही नही दिमागों में भी आग लगाने वाली । ।

हम सपथ ले कि हम ही इस देश के वर्तमान है । जिससे भविष्य का वो सारा दारोग्यदार है । जिस तरह मजधार में एक नाविक का उस पर बैठै सारे यात्रियों की जिम्मेदारी होती है हम उस भूत के लिये भी उतना ही उत्तरदायी है , जितनां भविष्य के लिये क्योंकि इस जग की नींव आज के उन लोगों द्वारा छेडी गयी है जो आज हमारे बीच नहीं है ।
‘ आज के नौजवानों से हमारा यह आहवान है कि आप कोई कार्य करते हो चाहे शिक्षा के क्षेत्र में हो , खेल के क्षेत्र में हो या कला एवं मनोरंजन के क्षेत्र में हो आप को निष्ठावान एवं चरित्रवान होना पड़ेगा । स्वामी जी विवेकानंद ने कहा है, कि-
“ विश्‍व का इतिहास मात्र कुछ लोगों द्वारा लिखा गया है । जो चरित्रवान है । ”
और किसी भी महान कार्य को करने के लिये कठिन परिश्रम, समय एवं निरंतर प्रयास की आवश्यकता होती है । अगर इसमें कुछ लोग असफल भी हो जाते है तो उनकी परवाह न करते हुए निरंतर कठिन प्रयास से महान कार्य पूरे हो जाते हैं ।